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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 14: संध्या समय दिति का गर्भ-धारण  »  श्लोक 19
 
 
श्लोक  3.14.19 
यामाहुरात्मनो ह्यर्धं श्रेयस्कामस्य मानिनि ।
यस्यां स्वधुरमध्यस्य पुमांश्चरति विज्वर: ॥ १९ ॥
 
शब्दार्थ
याम्—जिस पत्नी को; आहु:—कहा जाता है; आत्मन:—शरीर का; हि—इस प्रकार; अर्धम्—आधा; श्रेय:—कल्याण; कामस्य—सारी इच्छाओं का; मानिनि—हे आदरणीया; यस्याम्—जिसमें; स्व-धुरम्—सारे उत्तरदायित्व; अध्यस्य—सौंपकर; पुमान्—पुरुष; चरति—भ्रमण करता है; विज्वर:—निश्चिन्त ।.
 
अनुवाद
 
 हे आदरणीया, पत्नी इतनी सहायताप्रद होती है कि वह मनुष्य के शरीर की अर्धांगिनी कहलाती है, क्योंकि वह समस्त शुभ कार्यों में हाथ बँटाती है। पुरुष अपनी पत्नी पर जिम्मेदारियों का सारा भार डालकर निश्चिन्त होकर विचरण कर सकता है।
 
तात्पर्य
 वैदिक आदेशानुसार पत्नी को पुरुष के शरीर की अर्धांगिनी माना जाता है, क्योंकि वह पति के आधे कार्यों को सम्पन्न करने के लिए उत्तरदायी मानी जाती है। पारिवारिक पुरुष पर पाँच प्रकार के यज्ञ, जिन्हें पञ्चयज्ञ कहते हैं, सम्पन्न करने का भार रहता है, जिससे उसे सभी प्रकार के अनिवार्य पाप-कर्मों के फलों से छुटकारा मिल सके जो उसकी अपनी दिनचर्या के दौरान हो जाते हैं। जब मनुष्य गुणात्मक रीति से कुत्ते-बिल्लियों की तरह बन जाता है, तो वह आध्यात्मिक मूल्यों का अनुशीलन करने के अपने कर्तव्यों को भूल जाता है और तब वह अपनी पत्नी को इन्द्रियतृप्ति का साधन मान बैठता है। जब पत्नी को इन्द्रियतृप्ति का साधन माना जाता है, तो उसके पीछे व्यक्तिगत सौन्दर्य मुख्य उपादान रहता है और जैसे ही व्यक्तिगत इन्द्रियतृप्ति में कोई अवरोध आता है, तो सम्बन्धो में व्यवधान या तलाक हो जाता है। किन्तु जब पति-पत्नी पारस्परिक सहयोग द्वारा आध्यात्मिक प्रगति को लक्ष्य बनाते हैं, तो वैयक्तिक सौन्दर्य या तथाकथित प्रेम में व्यवधान पर ध्यान नहीं दिया जाता। भौतिक जगत में प्रेम का प्रश्न ही नहीं उठता। विवाह तो वास्तव में एक कर्तव्य है, जिसे आध्यात्मिक प्रगति के लिए प्रामाणिक शास्त्रों के निर्देशानुसार पारस्परिक सहयोग में सम्पन्न किया जाता है। अतएव कुत्तों तथा बिल्लियों के जीवन से बचने के लिए विवाह आवश्यक है, क्योंकि कुत्ते बिल्ली आध्यात्मिक प्रबुद्धता के लिए नहीं हैं।
 
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