यामाश्रित्येन्द्रियारातीन्दुर्जयानितराश्रमै: ।
वयं जयेम हेलाभिर्दस्यून्दुर्गपतिर्यथा ॥ २० ॥
शब्दार्थ
याम्—जिसको; आश्रित्य—आश्रय बनाकर; इन्द्रिय—इन्द्रियाँ; अरातीन्—शत्रुगण; दुर्जयान्—जीत पाना कठिन; इतर— गृहस्थों के अतिरिक्त; आश्रमै:—आश्रमों द्वारा; वयम्—हम; जयेम—जीत सकते हैं; हेलाभि:—आसानी से; दस्यून्— आक्रमणकारी लुटेरों को; दुर्ग-पति:—किले का सेनानायक; यथा—जिस तरह ।.
अनुवाद
जिस तरह किले का सेनापति आक्रमणकारी लुटेरों को बहुत आसानी से जीत लेता है उसी तरह पत्नी का आश्रय लेकर मनुष्य उन इन्द्रियों को जीत सकता है, जो अन्य आश्रमों में अजेय होती हैं।
तात्पर्य
मानव-समाज के चार आश्रमों—ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास आश्रमों—में से गृहस्थ सुरक्षित है। शारीरिक इन्द्रियाँ शरीर रूपी किले की लुटेरी मानी जाती हैं। पत्नी को किले का सेनापति माना जाता है, अतएव जब कभी शरीर पर इन्द्रियों द्वारा आक्रमण किया जाता है, तो पत्नी ही शरीर को क्षत-विक्षत होने से बचाती है। यौन की भूख हर एक के लिए अपरिहार्य है, किन्तु जिसके पास स्थायी पत्नी होती है, वह इन्द्रिय-शत्रुओं के आक्रमण से बचा लिया जाता है। जिस व्यक्ति के उत्तम पत्नी होती है, वह कुमारिकाओं को भ्रष्ट करके समाज में उत्पात नहीं मचाता। स्थायी पत्नी के बिना मनुष्य परले सिरे का व्यभिचारी बन जाता है और समाज के लिए अभिशाप होता है जब तक कि वह प्रशिक्षित ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ या संन्यासी न हो। जब तक दक्ष गुरु द्वारा ब्रह्मचारी का कठोर तथा नियमित प्रशिक्षण नहीं होगा और जब तक छात्र आज्ञाकारी नहीं होगा तब तक निश्चय ही तथाकथित ब्रह्मचारी यौन के आक्रमण का शिकार बनता रहेगा। पतन के अनेकानेक उदाहरण हैं—यहाँ तक कि विश्वामित्र जैसे महान् योगी का भी पतन हुआ। किन्तु गृहस्थ अपनी आज्ञाकारिणी पत्नी के कारण सुरक्षित बना रहता है। यौन जीवन भवबन्धन का कारण है इसीलिए इन तीन आश्रमों में इसका निषेध है और एकमात्र गृहस्थ आश्रम में इसकी अनुमति दी जाती है। गृहस्थ उत्तमकोटि के ब्रह्मचारियों, वानप्रस्थों तथा संन्यासियों को उत्पन्न करने के लिए उत्तरदायी है।
शेयर करें
All glories to Srila Prabhupada. All glories to वैष्णव भक्त-वृंद Disclaimer: copyrights reserved to BBT India and BBT Intl.