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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 14: संध्या समय दिति का गर्भ-धारण  »  श्लोक 21
 
 
श्लोक  3.14.21 
न वयं प्रभवस्तां त्वामनुकर्तुं गृहेश्वरि ।
अप्यायुषा वा कार्त्स्‍न्येन ये चान्ये गुणगृध्नव: ॥ २१ ॥
 
शब्दार्थ
—कभी नहीं; वयम्—हम; प्रभव:—समर्थ हैं; ताम्—उस; त्वाम्—तुमको; अनुकर्तुम्—वही करने के लिए; गृह-ईश्वरि—हे घर की रानी; अपि—के बावजूद; आयुषा—आयु के द्वारा; वा—अथवा (अगले जन्म में); कार्त्स्न्येन—सम्पूर्ण; ये—जो; —भी; अन्ये—अन्य; गुण-गृध्नव:—गुणों को पहचानने वाले ।.
 
अनुवाद
 
 हे घर की रानी, हम न तो तुम्हारी तरह कार्य करने में सक्षम हैं, न ही तुमने जो कुछ किया है उससे उऋण हो सकते हैं, चाहे हम अपने जीवन भर या मृत्यु के बाद भी कार्य करते रहें। तुमसे उऋण हो पाना उन लोगों के लिए भी असम्भव है, जो निजी गुणों के प्रशंसक होते हैं।
 
तात्पर्य
 पति द्वारा अपनी पत्नी का अत्यधिक गुण-गान संकेत करता है कि वह स्त्रीवश्य है या मजाक कर रहा है। कश्यप का आशय था कि पत्नियों के साथ रहने वाले गृहस्थ इन्द्रियभोग का स्वर्गिक आशीर्वाद भोगते हैं और साथ ही उनके पतन का भी कोई भय नहीं रहता। संन्यासी के पत्नी नहीं होती, अत: कामेच्छा से वह अन्य स्त्री को या अन्य की पत्नी को ढूँढने के लिए इच्छुक हो सकता है और इस तरह वह नरक जा सकता है। दूसरे शब्दों में, तथाकथित संन्यासी, जिसने घर तथा पत्नी को छोड़ दिया हो, नरक जाता है यदि वह जाने या अनजाने पुन: मैथुन-आनन्द की चाह करता है। इस दृष्टि से गृहस्थ सुरक्षित हैं। अतएव पतिवर्ग इस जीवन में या अगले जीवन में भी पत्नियों के ऋण से उऋण नहीं हो सकता। यदि वे जीवनभर इसे चुकता करते रहें तो भी यह सम्भावना नहीं। किन्तु सभी पति अपनी पत्नियों के सद्गुणों की सराहना नहीं कर पाते, किन्तु यदि कोई इन गुणों की सराहना करने में समर्थ हो भी जाए तो भी पत्नी के ऋण से उऋण हो पाना सम्भव नहीं है। पति द्वारा अपनी पत्नी की ऐसी असाधारण प्रशंसा निश्चय ही परिहास की मुद्रा में है।
 
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