हसन्ति यस्याचरितं हि दुर्भगा:
स्वात्मन्-रतस्याविदुष: समीहितम् ।
यैर्वस्त्रमाल्याभरणानुलेपनै:
श्वभोजनं स्वात्मतयोपलालितम् ॥ २८ ॥
शब्दार्थ
हसन्ति—हँसते हैं; यस्य—जिसका; आचरितम्—कार्य; हि—निश्चय ही; दुर्भगा:—अभागे; स्व-आत्मन्—अपने में; रतस्य— संलग्न रहने वाले का; अविदुष:—न जानने वाला; समीहितम्—उसका उद्देश्य; यै:—जिसके द्वारा; वस्त्र—वस्त्र; माल्य— मालाएँ; आभरण—आभूषण; अनु—ऐसे विलासी; लेपनै:—लेप से; श्व-भोजनम्—कुत्तों का भोजन; स्व-आत्मतया—मानो स्वयं; उपलालितम्—लाड़-प्यार किया गया ।.
अनुवाद
अभागे मूर्ख व्यक्ति यह न जानते हुए कि वे अपने में मस्त रहते हैं उन पर हँसते हैं। ऐसे मूर्ख व्यक्ति अपने उस शरीर को जो कुत्तों द्वारा खाये जाने योग्य है वस्त्र, आभूषण, माला तथा लेप से सजाने में लगे रहते हैं।
तात्पर्य
शिवजी कभी भी विलासी वस्त्र, माला, आभूषण या लेप स्वीकार नहीं करते। किन्तु जिन लोगों को शरीर को सजाने की लत रहती है वे उसे आत्मा के रूप में विलासपूर्वक बनाये रखते हैं, यद्यपि अन्त में वह कुत्तों का भक्ष्य बनता है। ऐसे व्यक्ति शिवजी को नहीं समझ पाते, किन्तु वे विलासपूर्ण भौतिक सुविधाओं के लिए उनके पास पहुँचते रहते हैं। शिवजी के भक्तों के दो वर्ग हैं। एक वर्ग नितान्त भौतिकतावादी होता है, जो शिवजी से केवल शारीरिक सुविधाओं की याचना करता है और दूसरा वर्ग उनसे तदाकार होना चाहता है। वे अधिकांशतया निर्विशेषवादी होते हैं और शिवोऽहम् अर्थात् “मैं शिव हूँ” का उच्चारण करते हैं जिसका अर्थ है कि, “मुक्ति के बाद मैं शिवजी से तदाकार हो जाऊँगा।” दूसरे शब्दों में, सामान्यतया कर्मी तथा ज्ञानीजन शिवजी के भक्त होते हैं, किन्तु वे उनके जीवन का वास्तविक उद्देश्य अच्छी तरह नहीं समझते। कभी-कभी शिवजी के तथाकथित भक्त विषैले मादक द्रव्यों का उपयोग करके उनकी नकल करते हैं। एक बार शिवजी ने विष का सागर निगल लिया था जिससे उनका गला नीला पड़ गया था। नकली शिव-गण विषों की लत लगाकर उनका अनुगमन करना चाहते हैं और इस तरह विनष्ट हो जाते हैं। शिवजी का असली उद्देश्य आत्मा के आत्मा अर्थात् भगवान् कृष्ण की सेवा करना है। वे चाहते हैं कि सारी विलास सामग्री यथा उत्तम वस्त्र, मालाएँ, आभूषण तथा प्रसाधन वस्तुएँ एकमात्र भगवान् कृष्ण को प्रदान की जाँय, क्योंकि वे ही असली भोक्ता हैं। वे स्वयं ऐसी विलास-सामग्री को अस्वीकार कर देते हैं, क्योंकि वे तो एकमात्र कृष्ण के निमित्त होती हैं। किन्तु मूर्ख-जन शिवजी के इस मन्तव्य को न जानने के कारण या तो उन पर हँसते हैं या व्यर्थ ही उनकी नकल करने का प्रयास करते हैं।
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