स विदित्वाथ भार्यायास्तं निर्बन्धं विकर्मणि ।
नत्वा दिष्टाय रहसि तयाथोपविवेश हि ॥ ३१ ॥
शब्दार्थ
स:—उसने; विदित्वा—समझकर; अथ—तत्पश्चात्; भार्याया:—पत्नी की; तम्—उस; निर्बन्धम्—जड़ता या दुराग्रह को; विकर्मणि—निषिद्ध कार्य में; नत्वा—नमस्कार करके; दिष्टाय—पूज्य भाग्य को; रहसि—एकान्त स्थान में; तया—उसके साथ; अथ—इस प्रकार; उपविवेश—लेट गया; हि—निश्चय ही ।.
अनुवाद
अपनी पत्नी के मन्तव्य को समझकर उन्हें वह निषिद्ध कार्य करना पड़ा और तब पूज्य प्रारब्ध को नमस्कार करके वे उसके साथ एकान्त स्थान में लेट गये।
तात्पर्य
कश्यप की अपनी पत्नी के साथ बातों से ऐसा लगता है कि वे शिवजी के उपासक थे और यद्यपि वे जानते थे कि ऐसा निषिद्ध कार्य करने से शिवजी उन पर प्रसन्न नहीं होंगे, किन्तु अपनी पत्नी की इच्छा के कारण वे ऐसा करने के लिए बाध्य थे, अतएव उन्होंने प्रारब्ध को नमस्कार किया। वे जानते थे कि ऐसे असामयिक संभोग से जो सन्तान उत्पन्न होगी वह निश्चय ही अच्छी नहीं होगी, किन्तु वे अपने को बचा नहीं पाये, क्योंकि वे अपनी पत्नी के प्रति अत्यधिक कृतज्ञ थे। किन्तु ऐसी ही दशा में जब ठाकुर हरिदास एक वेश्या के द्वारा अर्धरात्रि में मोहित किये गये तो उन्होंने कृष्णभावनामृत में अपनी सिद्धि के कारण उस प्रलोभन से अपने को बचा लिया। एक कृष्णभावनाभावित व्यक्ति तथा अन्यों में यही अन्तर है। कश्यप मुनि महान् विद्वान तथा प्रबुद्ध थे और नियमित जीवन के सारे विधि विधान जानते थे फिर भी वे अपने को कामेच्छा के आक्रमण से बचा नहीं पाये। ठाकुर हरिदास न तो ब्राह्मण कुल में उत्पन्न थे न ही स्वयं ब्राह्मण थे फिर भी कृष्णभावनाभावित होने के कारण वे अपने को ऐसे आक्रमण से बचा सके। ठाकुर हरिदास प्रतिदिन तीन लाख भगवन्नाम् का जप करते थे।
शेयर करें
All glories to Srila Prabhupada. All glories to वैष्णव भक्त-वृंद Disclaimer: copyrights reserved to BBT India and BBT Intl.