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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 14: संध्या समय दिति का गर्भ-धारण  »  श्लोक 32
 
 
श्लोक  3.14.32 
अथोपस्पृश्य सलिलं प्राणानायम्य वाग्यत: ।
ध्यायञ्जजाप विरजं ब्रह्म ज्योति: सनातनम् ॥ ३२ ॥
 
शब्दार्थ
अथ—तत्पश्चात्; उपस्पृश्य—जल का स्पर्श करके या जल में स्नान करके; सलिलम्—जल; प्राणान् आयम्य—समाधि का अभ्यास करके; वाक्-यत:—वाणी को नियंत्रित करते हुए; ध्यायन्—ध्यान करते हुए; जजाप—मुख के भीतर जप किया; विरजम्—शुद्ध; ब्रह्म—गायत्री मंत्र; ज्योति:—तेज; सनातनम्—नित्य ।.
 
अनुवाद
 
 तत्पश्चात् उस ब्राह्मण ने जल में स्नान किया और समाधि में नित्य तेज का ध्यान करते हुए तथा मुख के भीतर पवित्र गायत्री मंत्र का जप करते हुए अपनी वाणी को वश में किया।
 
तात्पर्य
 जिस तरह शौच के बाद मनुष्य स्नान करता है उसी तरह विशेष रूप से निषिद्ध समय पर, संभोग करने के बाद मार्जन करना पड़ता है। कश्यप मुनि ने अपने मुख के भीतर गायत्री मंत्र का जाप करते हुए निर्विशेष ब्रह्मज्योति का ध्यान किया। जब वैदिक मंत्र का उच्चारण मुख के भीतर किया जाय ताकि केवल जापक ही सुन सके, तो इसे जप कहते हैं। किन्तु जब ऐसे मंत्रों का उच्चस्वर से उच्चारण किया जाता है, तो वह कीर्तन कहलाता है। हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण, हरे हरे। हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे हरे—इस वैदिक मंत्र को अपने मन में धीमे धीमे अथवा जोर जोर से उच्चरति किया जा सकता है इसलिए यह महामन्त्र कहलाता है।

कश्यप मुनि निर्विशेषवादी प्रतीत होते हैं। जैसाकि पहले उल्लेख किया जा चुका है, ठाकुर हरिदास से उनके चरित्र की तुलना करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि एक सगुणवादी इन्द्रियनिग्रह में निर्विशेषवादी से अधिक प्रबल होता है। भगवद्गीता में इसकी व्याख्यापरं दृष्ट्वा निवर्तते से हुई है—उच्च पद पर स्थित होने पर मनुष्य निम्न कोटि की वस्तुएँ ग्रहण करना बन्द कर देता है। ऐसा माना जाता है कि स्नान करने तथा गायत्री जप करने के बाद मनुष्य शुद्ध हो जाता है, किन्तु महामन्त्र इतना शक्तिशाली होता है कि कोई इसे, किसी भी स्थिति में, चाहे धीरे धीरे जपे या जोर जोर से, वह संसार की सारी बुराइयों से बच जाता है।

 
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>  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥