नम:—नमस्कार; रुद्राय—क्रुद्ध शिवजी को; महते—महान् को; देवाय—देवता को; उग्राय—उग्र को; मीढुषे—समस्त इच्छाओं को पूरा करने वाले को; शिवाय—सर्व कल्याण-कर को; न्यस्त-दण्डाय—क्षमा करने वाले को; धृत-दण्डाय—तुरन्त दण्ड देने वाले को; मन्यवे—क्रुद्ध को ।.
अनुवाद
मैं उन क्रुद्ध शिवजी को नमस्कार करती हूँ जो एक ही साथ अत्यन्त उग्र महादेव तथा समस्त इच्छाओं को पूरा करने वाले हैं। वे सर्वकल्याणप्रद तथा क्षमाशील हैं, किन्तु उनका क्रोध उन्हें तुरन्त ही दण्ड देने के लिए चलायमान कर सकता है।
तात्पर्य
दिति ने बहुत ही चतुराई से शिवजी से कृपा के लिए प्रार्थना की। उसने प्रार्थना की: “भगवान् मुझे रुला सकते हैं, किन्तु वे चाहें तो मेरा सदन बन्द करा सकते हैं, क्योंकि वे आशुतोष हैं। वे इतने महान् हैं कि यदि चाहें तो मेरे गर्भ को तुरन्त नष्ट कर सकते हैं, किन्तु अपनी कृपा द्वारा वे मेरी यह इच्छा भी पूरी कर सकते हैं कि मेरा गर्भ विनष्ट न हो। चूँकि वे सर्वमंगलकारी हैं, अतएव मुझे दण्ड देने की अपेक्षा क्षमा करना उनके लिए कठिन नहीं है, यद्यपि वे मुझे दण्ड देने को उद्यत हैं, क्योंकि मैंने उनके महान् क्रोध को जगाया है। वे मनुष्य की तरह प्रतीत होते हैं, किन्तु वे सभी मनुष्यों के स्वामी हैं।”
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