कश्यप: उवाच—विद्वान ब्राह्मण कश्यप ने कहा; अप्रायत्यात्—दूषण के कारण; आत्मन:—मन के; ते—तुम्हारे; दोषात्— अपवित्र होने; मौहूर्तिकात्—मुहूर्त भर में; उत—भी; मत्—मेरा; निदेश—निर्देश; अतिचारेण—अत्यधिक उपेक्षा करने से; देवानाम्—देवताओं का; च—भी; अतिहेलनात्—अत्यधिक अवहेलित होकर ।.
अनुवाद
विद्वान कश्यप ने कहा : तुम्हारा मन दूषित होने, मुहूर्त विशेष के अपवित्र होने, मेरे निर्देशों की तुम्हारे द्वारा उपेक्षा किये जाने तथा तुम्हारे द्वारा देवताओं की अवहेलना होने से सारी बातें अशुभ थीं।
तात्पर्य
समाज में अच्छी सन्तान पाने के लिए शर्तें हैं कि पति धार्मिक तथा कर्मकाण्डीय नियमों में अनुशासित हो और पत्नी पतिपरायणा हो। भगवद्गीता (७.११) में कहा गया है कि धार्मिक नियमों के अनुसार संभोग कृष्णभावनामृत का स्वरूप है। संभोग करने के पूर्व पति तथा पत्नी दोनों को अपनी मानसिक स्थिति, काल विशेष, पति-निर्देश तथा देवताओं के प्रति आज्ञाकारिता पर विचार करना चाहिए। वैदिक समाज के अनुसार यौन जीवन के लिए उपयुक्त शुभ समय होता है, जो गर्भाधान का समय कहलाता है। दिति ने शास्त्रीय आदेश के सभी नियमों का उल्लंघन किया। इसलिए शुभ संतानें पाने के हेतु अतीव उत्सुक होने पर भी उसे यह बताया गया कि उसकी सन्तानें ब्राह्मण के पुत्र होने के योग्य नहीं होंगी। यहाँ पर स्पष्ट संकेत है कि ब्राह्मण का पुत्र सदैव ब्राह्मण नहीं होता। रावण तथा हिरण्यकशिपु जैसे पुरुष वस्तुत: ब्राह्मणों से उत्पन्न थे, किन्तु उन्हें ब्राह्मण के रूप में स्वीकार नहीं किया गया, क्योंकि इनके पिताओं ने उनके जन्म के लिए विधि-विधानों का पालन नहीं किया था। ऐसी सन्तानें असुर या राक्षस कहलाती हैं। पूर्वकाल में अनुशासन विधियों की लापरवाही से केवल एक या दो राक्षस थे, किन्तु कलियुग में तो यौन जीवन पर कोई अनुशासन है ही नहीं। तब फिर कोई अच्छी सन्तान की आशा कैसे कर सकता है? निश्चय ही अवांछित सन्तानें समाज में सुख का स्रोत नहीं हो सकतीं, किन्तु कृष्णभावनामृत के माध्यम से ईश्वर के नाम का उच्चारण करने से वे मानव-स्तर तक ऊपर उठ सकते हैं। मानव समाज के लिए श्री चैतन्य महाप्रभु का यह अद्वितीय योगदान है।
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