श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 14: संध्या समय दिति का गर्भ-धारण  »  श्लोक 46
 
 
श्लोक  3.14.46 
योगैर्हेमेव दुर्वर्णं भावयिष्यन्ति साधव: ।
निर्वैरादिभिरात्मानं यच्छीलमनुवर्तितुम् ॥ ४६ ॥
 
शब्दार्थ
योगै:—शुद्धिकरण की विधि से; हेम—सोना; इव—सदृश; दुर्वर्णम्—निम्न गुण; भावयिष्यन्ति—शुद्ध कर देगा; साधव:— साधु पुरुष; निर्वैर-आदिभि:—शत्रुता इत्यादि से मुक्त होने के अभ्यास से.; आत्मानम्—आत्मा; यत्—जिसका; शीलम्— चरित्र; अनुवर्तितुम्—चरणचिह्नों का अनुगमन करना ।.
 
अनुवाद
 
 उसके पदचिन्हों का अनुसरण करने के लिए सन्त पुरुष शत्रुता से मुक्त होने का अभ्यास करके उसके चरित्र को आत्मसात् करना चाहेंगे जिस तरह शुद्धिकरण की विधियाँ निम्न गुण वाले सोने को शुद्ध कर देती हैं।
 
तात्पर्य
 योगाभ्यास जो कि अपने जीवन को शुद्ध करने की विधि है, वह मुख्यत: आत्मसंयम पर निर्भर है। आत्मसंयम के बिना शत्रुता से मुक्ति का अभ्यास नहीं किया जा सकता। बद्ध अवस्था में हर जीव अन्य जीव से ईर्ष्या करता है, किन्तु मुक्त अवस्था में शत्रुता का अभाव होता है। प्रह्लाद महाराज अनेकानेक प्रकारों से अपने पिता द्वारा सताये गये थे फिर भी अपने पिता की मृत्यु के बाद उन्होंने भगवान् से अपने पिता के मोक्ष हेतु प्रार्थना की। उन्होंने कोई और वर नहीं माँगा, अपितु उन्होंने यही प्रार्थना की कि उनका नास्तिक पिता मोक्ष पाए। उन्होंने कभी किसी भी ऐसे व्यक्ति को शाप नहीं दिया जो उनके पिता के कहने पर उन्हें सताता था।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥