यत्—जिसके; प्रसादात्—कृपा से; इदम्—यह; विश्वम्—ब्रह्माण्ड; प्रसीदति—सुखी बनता है; यत्—जिसके; आत्मकम्— सर्वव्यापक होने से; स:—वह; स्व-दृक्—अपने भक्तों की विशेष परवाह करने वाले; भगवान्—भगवान्; यस्य—जिसका; तोष्यते—प्रसन्न होता है; अनन्यया—बिना विचलन के; दृशा—बुद्धि से ।.
अनुवाद
हर व्यक्ति उनसे प्रसन्न रहेगा, क्योंकि ब्रह्माण्ड के परम नियन्ता भगवान् सदैव ऐसे भक्त से तुष्ट रहते हैं, जो उनके अतिरिक्त और किसी वस्तु की इच्छा नहीं करता।
तात्पर्य
पुरुषोत्तम भगवान् सर्वत्र परमात्मा रूप में स्थित हैं और वे जिस किसी को भी चाहें उसे अपनी इच्छानुसार आदेश दे सकते हैं। दिति का होने वाला पौत्र, जिसके महान् भक्त होने की भविष्यवाणी की गई थी, सबों का यहाँ तक कि अपने पिता के शत्रुओं का भी प्रिय होगा, क्योंकि उसके पास भगवान् के अतिरिक्त अन्य कोई दृष्टि नहीं होगी। शुद्ध भक्त अपने आराध्य ईश की उपस्थिति सर्वत्र देखता है। भगवान् इस प्रकार से आदान-प्रदान करते हैं कि वे सारे जीव भी जिनमें भगवान् परमात्मा रूप में निवास कर रहे होते हैं शुद्ध भक्त को चाहते हैं, क्योंकि भगवान् उनके हृदयों में उपस्थित रहता है और वे उन्हें अपने भक्त के साथ मैत्री भाव रखने के लिए आदेश दे सकते हैं। इतिहास में ऐसे अनेक दृष्टान्त हैं जिसमें उग्र से उग्र पशु भी भगवान् के शुद्ध भक्त के प्रति मित्रवत् बन गया।
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