अलम्पट:—पुण्यशील; शील-धर:—योग्य; गुण-आकर:—समस्त सद्गुणों की खान; हृष्ट:—प्रसन्न; पर-ऋद्ध्या—अन्य के सुख से; व्यथित:—दुखी; दु:खितेषु—अन्यों के दुख में; अभूत-शत्रु:—शत्रुरहित, अजातशत्रु; जगत:—सारे ब्रह्माण्डका; शोक-हर्ता—शोक का विनाशक; नैदाघिकम्—ग्रीष्मकालीन घाम से; तापम्—कष्ट; इव—सदृश; उडु-राज:—चन्द्रमा ।.
अनुवाद
वह समस्त सद्गुणों का अतीव सुयोग्य आगार होगा, वह प्रसन्न रहेगा और अन्यों के सुख में सुखी, अन्यों के दुख में दुखी होगा तथा उसका एक भी शत्रु नहीं होगा। वह सारे ब्रह्माण्डों के शोक का उसी तरह नाश करने वाला होगा जिस तरह ग्रीष्मकालीन सूर्य के बाद सुहावना चन्द्रमा।
तात्पर्य
भगवान् के आदर्श भक्त प्रह्लाद महाराज में समस्त सम्भव मानवीय गुण विद्यमान थे। यद्यपि वे इस जगत के सम्राट थे, किन्तु वे लम्पट या व्यभिचारी न थे। वे बाल्यकाल से ही समस्त सद्गुणों के आगार थे। उन गुणों को गिनाये बिना सारांश रूप में यहाँ बताया गया है कि वे समस्त सद्गुणों से युक्त थे। यही शुद्ध भक्त का लक्षण है। शुद्ध भक्त का सबसे महत्त्वपूर्ण गुण यह है कि वह लम्पट नहीं होता और दूसरा गुण यह है कि वह कष्ट भोग रही मानवता के दुखों को दूर करने के लिए सदैव उत्सुक रहता है। जीव का सबसे घिनौना कष्ट है कृष्ण की विस्मृति। इसीलिए शुद्ध भक्त सदैव हर एक में कृष्णभावनामृत को जगाने का प्रयास करता रहता है। यह सारे कष्टों की रामबाण ओषधि है।
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