श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 14: संध्या समय दिति का गर्भ-धारण  »  श्लोक 50
 
 
श्लोक  3.14.50 
अन्तर्बहिश्चामलमब्जनेत्रं
स्वपूरुषेच्छानुगृहीतरूपम् ।
पौत्रस्तव श्रीललनाललामं
द्रष्टा स्फुरत्कुण्डलमण्डिताननम् ॥ ५० ॥
 
शब्दार्थ
अन्त:—भीतर से; बहि:—बाहर से; च—भी; अमलम्—निर्मल; अब्ज-नेत्रम्—कमल नेत्र; स्व-पूरुष—अपना भक्त; इच्छा- अनुगृहीत-रूपम्—इच्छानुरूप शरीर धारण करके; पौत्र:—नाती; तव—तुम्हारा; श्री-ललना—सुन्दर लक्ष्मीजी; ललामम्— अलंकृत; द्रष्टा—देखेगा; स्फुरत्-कुण्डल—चमकीले कुंडलों से; मण्डित—सुशोभित; आननम्—मुख ।.
 
अनुवाद
 
 तुम्हारा पौत्र भीतर तथा बाहर से उन पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् का दर्शन कर सकेगा जिन की पत्नी सुन्दरी लक्ष्मीजी हैं। भगवान् भक्त द्वारा इच्छित रूप धारण कर सकते हैं और उनका मुखमण्डल सदैव कुण्डलों से सुन्दर ढंग से अलंकृत रहता है।
 
तात्पर्य
 यहाँ पर यह भविष्यवाणी की गई है कि दिति के पौत्र प्रह्लाद महाराज ध्यान के द्वारा न केवल अपने भीतर भगवान् का दर्शन कर सकेंगे, अपितु वे उन्हें अपनी आँखों से साक्षात् भी देख सकेंगे। यह साक्षात् दर्शन केवल उसी के लिए सम्भव है, जो कृष्णभावनामृत में बहुत ही उच्चस्थ बढ़ा-चढ़ा हो, क्योंकि भगवान् को भौतिक आँखों से नहीं देखा जा सकता। भगवान् के नाना नित्य रूप हैं यथा कृष्ण, बलदेव, संकर्षण, अनिरुद्ध, प्रद्युम्न, वासुदेव, नारायण, राम, नृसिंह, वराह तथा वामन और भगवान् का भक्त इन सारे विष्णु रूपों को जानता है। शुद्ध भक्त भगवान् के किसी एक नित्य रूप से जुड़ जाता है और भगवान् उसके समक्ष इच्छित रूप में प्रकट होने के लिए प्रसन्न हो जाते हैं। भक्त भगवान् के रूप के बारे में न तो मनमानी कल्पना करता है, न ही वह कभी यह सोचता है कि भगवान् निर्विशेष हैं और अभक्त द्वारा चाहा गया कोई रूप धारण कर सकते हैं। अभक्त को भगवान् के रूप का कोई अनुमान नहीं होता, अतएव वह उपर्युक्त रूपों में से किसी के भी विषय में चिन्तन नहीं कर सकता। किन्तु जब भी कोई भक्त भगवान् का दर्शन करता है, तो वह उन्हें अत्यन्त सुन्दर ढंग से सजे तथा उनकी नित्य संगिनी तथा नित्य सुन्दरी लक्ष्मीजी के साथ देखता है।
 
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