श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 15: ईश्वर के साम्राज्य का वर्णन  »  श्लोक 1
 
 
श्लोक  3.15.1 
मैत्रेय उवाच
प्रजापत्यं तु तत्तेज: परतेजोहनं दिति: ।
दधार वर्षाणि शतं शङ्कमाना सुरार्दनात् ॥ १ ॥
 
शब्दार्थ
मैत्रेय: उवाच—महर्षि मैत्रेय ने कहा; प्राजापत्यम्—महान् प्रजापति का; तु—लेकिन; तत् तेज:—उसका बलशाली वीर्य; पर तेज:—अन्यों का पराक्रम; हनम्—कष्ट देने वाला; दिति:—दिति (कश्यप पत्नी) ने; दधार—धारण किया; वर्षाणि—वर्षों तक; शतम्—एक सौ; शङ्कमाना—शंकालु; सुर-अर्दनात्—देवताओं को उद्विग्न करने वाले ।.
 
अनुवाद
 
 श्री मैत्रेय ने कहा : हे विदुर, महर्षि कश्यप की पत्नी दिति यह समझ गई कि उसके गर्भ में स्थित पुत्र देवताओं के विक्षोभ के कारण बनेंगे। अत: वह कश्यप मुनि के तेजवान वीर्य को एक सौ वर्षों तक निरन्तर धारण किये रही, क्योंकि यह अन्यों को कष्ट देने वाला था।
 
तात्पर्य
 महर्षि श्री मैत्रेय विदुर से ब्रह्मा समेत सारे देवताओं के कार्यों की विवेचना कर रहे थे। जब दिति ने अपने पति के मुख से सुना कि वह अपनी कोख में जो पुत्र धारण किए हुए हैं, वे देवताओं के लिए विक्षोभ के कारण बनेंगे तो वह बहुत प्रसन्न नहीं थी। मनुष्य दो तरह के होते हैं— भक्त तथा अभक्त। अभक्त-गण असुर कहलाते हैं और भक्तगण देवता कहलाते हैं। कोई भी विवेकवान पुरुष या स्त्री अभक्तों द्वारा भक्तों को कष्ट दिए जाना सहन नहीं कर सकता। इसलिए दिति पुत्रों को जन्म देने में हिचक रही थी। इसीलिए उसने सौ वर्षों तक प्रतीक्षा की जिससे कम से कम उस अवधि के लिए तो देवताओं को उत्पात से बचा सके
 
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