यत्र नै:श्रेयसं नाम वनं कामदुघैर्द्रुमै: ।
सर्वर्तुश्रीभिर्विभ्राजत्कैवल्यमिव मूर्तिमत् ॥ १६ ॥
शब्दार्थ
यत्र—वैकुण्ठलोकों में; नै:श्रेयसम्—शुभ; नाम—नामक; वनम्—जंगल; काम-दुघै:—इच्छा पूरी करने वाले; द्रुमै:—वृक्षों समेत; सर्व—समस्त; ऋतु—ऋतुएँ; श्रीभि:—फूलों-फलों से; विभ्राजत्—शोभायमान; कैवल्यम्—आध्यात्मिक; इव—सदृश; मूर्तिमत्—साकार ।.
अनुवाद
उन वैकुण्ठ लोकों में अनेक वन हैं, जो अत्यन्त शुभ हैं। उन वनों के वृक्ष कल्पवृक्ष हैं, जो सभी ऋतुओं में फूलों तथा फलों से लदे रहते हैं, क्योंकि वैकुण्ठलोकों में हर वस्तु आध्यात्मिक तथा साकार होती है।
तात्पर्य
वैकुण्ठलोकों में भूमि, वृक्ष, फल-फूल तथा गौवें—हर वस्तु—पूर्णतया आध्यात्मिक तथा साकार होती है। वहाँ के वृक्ष कल्पवृक्ष हैं। इस भौतिक लोक में वृक्ष भौतिक शक्ति के आदेशानुसार ही फूल-फल उत्पन्न कर सकते हैं, किन्तु वैकुण्ठलोकों में वृक्ष, भूमि, निवासी तथा पशु—सभी आध्यात्मिक होते हैं। वहाँ वृक्ष तथा पशु या पशु तथा मनुष्य में कोई अन्तर नहीं होता। यहाँ पर मूर्तिमत् शब्द सूचित करता है कि हर वस्तु का आध्यात्मिक स्वरूप होता है। इस श्लोक में निर्विशेषवादियों द्वारा कल्पित रूपविहीनता (निराकारता) का खण्डन किया गया है। वैकुण्ठलोकों में यद्यपि हर वस्तु आध्यात्मिक है, किन्तु उसका एक विशेष रूप रहता है। वृक्षों तथा मनुष्यों का रूप होता है और चूँकि वे भिन्न भिन्न रूप से निर्मित होते हुए भी सभी आध्यात्मिक हैं, उनमें कोई अन्तर नहीं होता है।
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