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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 15: ईश्वर के साम्राज्य का वर्णन  »  श्लोक 18
 
 
श्लोक  3.15.18 
पारावतान्यभृतसारसचक्रवाक-
दात्यूहहंसशुकतित्तिरिबर्हिणां य: ।
कोलाहलो विरमतेऽचिरमात्रमुच्चै
र्भृङ्गाधिपे हरिकथामिव गायमाने ॥ १८ ॥
 
शब्दार्थ
पारावत—कबूतर; अन्यभृत—कोयल; सारस—सारस; चक्रवाक—चकई चकवा; दात्यूह—चातक; हंस—हंस; शुक— तोता; तित्तिरि—तीतर; बर्हिणाम्—मोर का; य:—जो; कोलाहल:—कोलाहल; विरमते—रुकता है; अचिर-मात्रम्—अस्थायी रूप से; उच्चै:—तेज स्वर से; भृङ्ग-अधिपे—भौंरे का राजा; हरि-कथाम्—भगवान् की महिमा; इव—सदृश; गायमाने—गाये जाते समय ।.
 
अनुवाद
 
 जब भौंरों का राजा भगवान् की महिमा का गायन करते हुए उच्च स्वर से गुनगुनाता है, तो कबूतर, कोयल, सारस, चक्रवाक, हंस, तोता, तीतर तथा मोर का शोर अस्थायी रूप से बन्द पड़ जाता है। ऐसे दिव्य पक्षी केवल भगवान् की महिमा सुनने के लिए अपना गाना बन्द कर देते हैं।
 
तात्पर्य
 यह श्लोक वैकुण्ठ के परम स्वभाव का उद्धाटन करता है। वहाँ पर पक्षियों तथा मनुष्यों में कोई अन्तर नहीं है। आध्यात्मिक आकाश की स्थिति ऐसी है कि हर वस्तु आध्यात्मिक तथा चित्र विचित्र है। आध्यात्मिक चित्र-वैचित्र्य का अर्थ है कि हर वस्तु चर है। कुछ भी अचर नहीं है। यहाँ तक कि वृक्ष, भूमि, पौधे, फूल, पक्षी तथा पशु सारे के सारे कृष्णभावनामृत के स्तर पर होते हैं। वैकुण्ठलोक की विशेषता यह है कि वहाँ इन्द्रियतृप्ति का प्रश्न ही नहीं उठता। भौतिक जगत में गधा तक अपनी ध्वनि का आनन्द लेता है, किन्तु वैकुण्ठलोकों में मोर, चक्रवाक तथा कोयल जैसे उत्तम पक्षी भी भौंरों से भगवान् की महिमा की ध्वनि को सुनना अधिक पसन्द करते हैं। वैकुण्ठलोक में श्रवण-कीर्तन इत्यादि से आरम्भ होने वाले भक्ति के सिद्धान्त अधिक प्रमुख हैं।
 
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