श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 15: ईश्वर के साम्राज्य का वर्णन  »  श्लोक 21
 
 
श्लोक  3.15.21 
श्री रूपिणी क्‍वणयती चरणारविन्दं
लीलाम्बुजेन हरिसद्मनि मुक्तदोषा ।
संलक्ष्यते स्फटिककुड्य उपेतहेम्नि
सम्मार्जतीव यदनुग्रहणेऽन्ययत्न: ॥ २१ ॥
 
शब्दार्थ
श्री—लक्ष्मीजी; रूपिणी—सुन्दर रूप धारण करने वाली; क्वणयती—शब्द करती; चरण-अरविन्दम्—चरणकमल; लीला- अम्बुजेन—कमल के फूल के साथ क्रीड़ा करती; हरि-सद्मनि—भगवान् के घर में; मुक्त-दोषा—समस्त दोषों से मुक्त हुई; संलक्ष्यते—दृष्टिगोचर होती है; स्फटिक—संगमरमर; कुड्ये—दीवालों में; उपेत—मिली-जुली; हेम्नि—स्वर्ण; सम्मार्जती इव— बुहारने वाली की तरह लगने वाली; यत्-अनुग्रहणे—उसकी कृपा पाने के लिए; अन्य—दूसरे; यत्न:—अत्यधिक सतर्क ।.
 
अनुवाद
 
 वैकुण्ठलोकों की महिलाएँ इतनी सुन्दर हैं कि जैसे देवी लक्ष्मी स्वयं है। ऐसी दिव्य सुन्दरियाँ जिनके हाथ कमलों के साथ क्रीड़ा करते हैं तथा पाँवों के नुपूर झंकार करते हैं कभी कभी उन संगमरमर की दीवालों को जो थोड़ी थोड़ी दूरी पर सुनहले किनारों से अलंकृत हैं, इसलिए बुहारती देखी जाती है कि उन्हें भगवान् की कृपा प्राप्त हो सके।
 
तात्पर्य
 ब्रह्म-संहिता में यह कहा गया है कि भगवान् गोविन्द के धाम में सदैव करोड़ों लक्ष्मियाँ उनकी सेवा करती हैं। लक्ष्मीसहस्रशतसम्भ्रमसेव्यमानम्। ये करोड़ों-अरबों लक्ष्मियाँ जो वैकुण्ठलोकों में निवास करती हैं पुरुषोत्तम भगवान् की वास्तविक प्रेमिकाएँ नहीं हैं, अपितु भगवद्भक्तों की पत्नियाँ हैं और वे भगवान् की सेवा भी करती हैं। यहाँ यह कहा गया है कि वैकुण्ठलोकों में संगमरमर के घर बने होते हैं। इसी प्रकार ब्रह्म-संहिता में कहा गया है कि वैकुण्ठलोकों की फर्श स्पर्शमणि की बनी हुई है। इसलिए वैकुण्ठ में पत्थर को बुहारने की आवश्यकता नहीं पड़ती, क्योंकि उस पर रंचमात्र भी धूल नहीं है; फिर भी भगवान् को तुष्ट करने हेतु स्त्रियाँ सदैव संगमरमर की दीवालों को झाड़ती रहती हैं।

क्यों? इसलिए कि वे ऐसा करके भगवान् की कृपा पाने के लिए उत्सुक रहती हैं। यहाँ यह भी कहा गया है कि वैकुण्ठलोकों में लक्ष्मियाँ दोषरहित होती हैं। सामान्यतया लक्ष्मीजी एक स्थान पर स्थायी रूप से नहीं रहतीं। उनका नाम चञ्चला है, जिसका अर्थ है, “जो स्थिर न हो।” अतएव हम देखते हैं कि जो व्यक्ति बहुत ही धनवान है, वह अतीव निर्धन बन सकता है। एक और उदाहरण रावण का है। रावण लक्ष्मी अर्थात् सीता जी को अपने साम्राज्य में ले गया, किन्तु लक्ष्मी की कृपा द्वारा सुखी होने के बजाय उसका परिवार तथा सारा साम्राज्य विनष्ट हो गया। इस तरह रावण के घर में लक्ष्मी चञ्चला अर्थात् अस्थिर हैं। रावण की श्रेणी के लोग केवल लक्ष्मी को उनके पति नारायण के बिना चाहते हैं, अतएव लक्ष्मीजी के कारण वे चंचल हो उठते हैं। भौतिकतावादी व्यक्ति लक्ष्मीजी में दोष ढूँढते हैं, किन्तु वैकुण्ठ में लक्ष्मीजी भगवान् की सेवा में जुटी रहती हैं। भाग्य की देवी होते हुए भी लक्ष्मीजी भगवान् की कृपा के बिना सुखी नहीं रह सकतीं। लक्ष्मी जी को भी सुखी होने के लिए भगवान् की कृपा की आवश्यकता पड़ती है; फिर भी भौतिक जगत में सर्वोच्च प्राणी ब्रह्माजी भी सुख के निमित्त लक्ष्मी की कृपा के लिए उनका मुँह जोहते रहते हैं।

 
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