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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 15: ईश्वर के साम्राज्य का वर्णन  »  श्लोक 23
 
 
श्लोक  3.15.23 
यन्न व्रजन्त्यघभिदो रचनानुवादा-
च्छृण्वन्ति येऽन्यविषया: कुकथा मतिघ्नी: ।
यास्तु श्रुता हतभगैर्नृभिरात्तसारा-
स्तांस्तान् क्षिपन्त्यशरणेषु तम:सु हन्त ॥ २३ ॥
 
शब्दार्थ
यत्—वैकुण्ठ; —कभी नहीं; व्रजन्ति—पहुँचते हैं; अघ-भिद:—सभी प्रकार के पापों के विनाशक; रचना—सृष्टि का; अनुवादात्—कथन की अपेक्षा; शृण्वन्ति—सुनते हैं; ये—जो; अन्य—दूसरों; विषया:—विषय; कु-कथा:—बुरे शब्द; मति घ्नी:—बुद्धि को मारने वाली; या:—जो; तु—लेकिन; श्रुता:—सुना जाता है; हत-भगै:—अभागे; नृभि:—मनुष्यों द्वारा; आत्त—छीना हुआ; सारा:—जीवन मूल्य; तान् तान्—ऐसे व्यक्ति; क्षिपन्ति—फेंके जाते हैं; अशरणेषु—समस्त आश्रय से विहीन; तम:सु—संसार के सबसे अँधेरे भाग में; हन्त—हाय ।.
 
अनुवाद
 
 यह अतीव शोचनीय है कि अभागे लोग वैकुण्ठलोकों के विषय में चर्चा नहीं करते, अपितु ऐसे विषयों में लगे रहते हैं, जो सुनने के लायक नहीं होते तथा मनुष्य की बुद्धि को संभ्रमित करते हैं। जो लोग वैकुण्ठ के प्रसंगों का त्याग करते हैं, तथा भौतिक जगत की बातें चलाते हैं, वे अज्ञान के गहनतम अंधकार में फेंक दिये जाते हैं।
 
तात्पर्य
 सबसे अभागे तो निर्विशेषवादी हैं, जो आध्यात्मिक जगत के चित्र-वैचित्र्य को नहीं समझ पाते। वे वैकुण्ठलोकों के सौन्दर्य की बात चलाते भयभीत होते हैं, क्योंकि वे सोचते हैं कि ऐसा वैचित्र्य अवश्य ही भौतिक होगा। ऐसे निर्विशेषवादी सोचते हैं कि आध्यात्मिक जगत पूर्णतया शून्य है अथवा दूसरे शब्दों में, वहाँ कोई चित्र-वैचित्र्य नहीं है। इस मनोवृत्ति को यहाँ पर कुकथा मतिघ्नी: अर्थात् “अयोग्य शब्दों द्वारा मोहग्रस्त बुद्धि” कहा गया है। यहाँ पर शून्यवाद तथा आध्यात्मिक जगत की निर्विशेष स्थिति की भर्त्सना की गई है, क्योंकि इनसे मनुष्य की बुद्धि मोहग्रस्त होती है। निर्विशेषवादी तथा शून्यवादी किस तरह इस जगत के विषय में, जो चित्र-वैचित्र्य पूर्ण है, सोच सकते हैं और तब कह सकते हैं कि आध्यात्मिक जगत में चित्र-वैचित्र्य नहीं है। ऐसा कहा जाता है कि यह भौतिक जगत आध्यात्मिक जगत का विकृत प्रतिबिम्ब है, अतएव जब तक आध्यात्मिक जगत में चित्र-वैचित्र्य नहीं होगा तब तक इस भौतिक जगत में क्षणिक चित्र-वैचित्र्य कैसे हो सकता है? इस बात का कि कोई इस भौतिक जगत को पार कर सकता है अर्थ यह नहीं है कि यहाँ दिव्य चित्र वैचित्र्य नहीं है।

भागवत में और विशेष रूप से इस श्लोक में इस बात पर बल दिया गया है कि जो लोग आध्यात्मिक आकाश तथा वैकुण्ठलोकों के वास्तविक दिव्य रूप के विषय में विचार-विमर्श करने तथा समझने का प्रयास करते हैं, वे भाग्यवान हैं। वैकुण्ठलोकों का चित्र-वैचित्र्य भगवान् की दिव्य लीलाओं के सम्बन्ध में वर्णित है। किन्तु लोग आध्यात्मिक धाम तथा भगवान् के दिव्य कार्यकलापों को समझने का प्रयास करने के बजाय राजनीति तथा आर्थिक विकास में अधिक रुचि दिखाते हैं। वे इस जगत की जहाँ उन्हें कुछ वर्षों तक ही रहना है स्थिति से सम्बन्धित समस्याओं को हल करने के लिए अनेकानेक सम्मेलनों, गोष्ठियों तथा चर्चाओं का आयोजन करते हैं, किन्तु वे वैकुण्ठलोक की आध्यात्मिक स्थिति को समझने में रुचि नहीं दिखाते। यदि वे तनिक भी भाग्यशाली हुए तो वे भगवद्धाम वापस जाने में रुचि दिखाते हैं, किन्तु जब तक वे आध्यात्मिक जगत को समझ नहीं लेते वे इस भौतिक अंधकार में लगातार सड़ते रहते हैं।

 
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