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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 15: ईश्वर के साम्राज्य का वर्णन  »  श्लोक 25
 
 
श्लोक  3.15.25 
यच्च व्रजन्त्यनिमिषामृषभानुवृत्त्या
दूरेयमा ह्युपरि न: स्पृहणीयशीला: ।
भर्तुर्मिथ: सुयशस: कथनानुराग-
वैक्लव्यबाष्पकलया पुलकीकृताङ्गा: ॥ २५ ॥
 
शब्दार्थ
यत्—वैकुण्ठ; —तथा; व्रजन्ति—जाते हैं; अनिमिषाम्—देवताओं का; ऋषभ—मुखिया; अनुवृत्त्या—चरणचिह्नों का अनुसरण करके; दूरे—दूर रहते हुए; यमा:—विधि-विधान; हि—निश्चय ही; उपरि—ऊपर; न:—हमको; स्पृहणीय—वांछनीय; शीला:—सद्गुण; भर्तु:—भगवान् के; मिथ:—एक दूसरे के लिए; सुयशस:—ख्याति; कथन—विचार विमर्श या वार्ताओं द्वारा; अनुराग—आकर्षण; वैक्लव्य—भाव, आनन्द; बाष्प-कलया—आँखों में अश्रु; पुलकी-कृत—काँपते हुए; अङ्गा:— शरीर ।.
 
अनुवाद
 
 आनन्दभाव में जिन व्यक्तियों के शारीरिक लक्षण परिवर्तित होते हैं और जो भगवान् की महिमा का श्रवण करने पर गहरी-गहरी साँस लेने लगते हैं तथा प्रस्वेदित हो उठते हैं, वे भगवद्धाम को जाते हैं भले ही वे ध्यान तथा अन्य अनुष्ठानों की तनिक भी परवाह न करते हों। भगवद्धाम भौतिक ब्रह्माण्डों के ऊपर है और ब्रह्मा तथा अन्य देवतागण तक इसकी इच्छा करते हैं।
 
तात्पर्य
 यहाँ पर यह स्पष्ट कथन है कि भगवद्धाम भौतिक ब्रह्माण्डों के ऊपर है। जिस प्रकार इस पृथ्वी के ऊपर लाखों उच्चतर लोक हैं उसी तरह आध्यात्मिक आकाश से सम्बन्धित लाखों करोड़ों आध्यात्मिक लोक हैं। ब्रह्माजी यहाँ कहते हैं कि आध्यात्मिक जगत देवताओं के लोक के ऊपर है। मनुष्य भगवद्धाम में तभी प्रवेश कर सकता है जब उसमें वांछनीय गुण अत्यधिक विकसित हों। भक्त में सारे सद्गुण विकसित हो जाते हैं। श्रीमद्भागवत (५.१८.१२) में कहा गया है कि जो कृष्णभावनाभावित होता है, वह देवताओं के सभी सद्गुणों से समन्वित होता है। भौतिक जगत में देवताओं के सद्गुणों की अत्यधिक सराहना की जाती है, जिस तरह, जैसा हमारा अनुभव है, भद्रपुरुष के गुणों की सराहना अज्ञानी व्यक्ति या निम्न जीवन में रहने वाले की तुलना में अधिक की जाती है। उच्चतर लोकों के देवताओं के गुण इस पृथ्वी के निवासियों के गुणों की अपेक्षा कहीं श्रेष्ठ हैं।

यहाँ पर ब्रह्माजी पुष्टि करते हैं कि केवल वे ही व्यक्ति भगवद्धाम में प्रवेश कर सकते हैं जिन्होंने वांछनीय गुण विकसित कर लिये हैं। चैतन्य-चरितामृत में भक्त के वांछनीय गुणों की संख्या २६ बतलाई गई है। वे इस प्रकार हैं: वह अत्यन्त दयालु होता है; वह किसी से झगड़ता नहीं; वह कृष्णभावनामृत को जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य स्वीकार करता है; वह सबों पर समभाव रखता है; उसके चरित्र में दोष नहीं निकाला जा सकता; वह उदार, मृदु तथा सदैव भीतर-बाहर से स्वच्छ रहता है; वह इस जगत में किसी वस्तु पर अपना दावा नहीं करता; वह सारे जीवों का उपकारी होता है; वह शान्त रहता है और पूर्णतया कृष्ण के शरणागत होता है; वह निष्काम होता है; वह दीन, विनीत, सदैव स्थिर रहता है और उसने इन्द्रियों के कार्यकलापों को जीत लिया होता है; वह शरीर के निर्वाह से अधिक भोजन नहीं करता; वह भौतिक पहचान के पीछे पागल नहीं रहता; वह अन्यों को आदर देता (मानप्रद) है, किन्तु अपने आदर का भूखा नहीं रहता (अमानी); वह अत्यन्त गम्भीर, अत्यन्त दयालु तथा सौहार्दपूर्ण होता है; वह कवित्वमय होता है; वह सारे कार्यों में दक्ष होता है और व्यर्थ चर्चा के समय मौन रहता है। इसी तरह श्रीमद्भागवत (३.२५.२१) में सन्त पुरुष के गुणों का उल्लेख हुआ है। कहा गया है कि भगवद्धाम जाने का पात्र सन्त पुरुष अत्यन्त सहिष्णु तथा समस्त जीवों पर अतीव दयालु होता है। वह पक्षपात नहीं करता; वह मनुष्यों तथा पशुओं दोनों ही के प्रति दयालु होता है। वह ऐसा मूर्ख नहीं होता कि मनुष्य नारायण या दरिद्रनारायण को खिलाने के लिए बकरा-नारायण की हत्या करे। वह सारे जीवों के प्रति अत्यन्त दयालु होता है, अतएव उसका कोई शत्रु नहीं होता। वह अत्यन्त शान्त रहता है। ये गुण उन पुरुषों के हैं, जो भगवद्धाम में प्रवेश करने के योग्य हैं। ऐसा व्यक्ति धीरे धीरे मुक्त होकर भगवद्धाम में प्रवेश करता है। इस बात की पुष्टि श्रीमद्भागवत (५.५.२) में की गई है। श्रीमद्भागवत में ही (२.३.२४) अन्यत्र कहा गया है कि यदि कोई व्यक्ति निरपराध भाव से भगवन्नाम का कीर्तन करने के बाद क्रन्दन या शारीरिक परिवर्तन प्रदर्शित नहीं करता (नामापराध) तो समझना चाहिए कि वह कठोर हृदय है, जिससे उसका हृदय भगवन्नाम का, अर्थात् हरे कृष्ण का उच्चारण करने के बाद भी नहीं बदलता। ये शारीरिक परिवर्तन भाव के कारण हो सकते हैं जब हम निरपराध भाव से भगवन्नाम—हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण, हरे हरे। हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे हरे—का कीर्तन करते हैं।

यहाँ यह ध्यान रखना होगा कि हमें दस अपराधों से बचना चाहिए। पहला अपराध है उन लोगों की बुराई करना जो अपने जीवन में भगवान् की महिमा का प्रसार करना चाहते हैं। लोगों को परम पुरुष की महिमा समझने में शिक्षित किया जाना चाहिए, अत: जो भक्तगण भगवान् की महिमा का प्रचार करने में लगे रहते हैं उनकी बुराई कभी भी नहीं करनी चाहिए। यह सबसे भारी अपराध है। इसके अतिरिक्त विष्णु का पवित्र नाम सबसे अधिक शुभ (मंगलमय) नाम है और उनकी लीलाएँ भी उनके पवित्र नाम से अभिन्न हैं। ऐसे अनेक मूर्ख हैं, जो यह कहते हैं कि चाहे कोई हरे कृष्ण का कीर्तन करे चाहे काली, दुर्गा या शिव के नामों का कीर्तन करे, क्योंकि ये सभी समान हैं। यदि कोई यह सोचता है कि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् का नाम तथा देवताओं के नाम एवं कार्य-कलाप एकसमान हैं या यदि कोई व्यक्ति विष्णु के पवित्र नाम को भौतिक ध्वनि मानता है, तो यह भी एक अपराध है। तीसरा अपराध है भगवान् की महिमा का प्रसार करने वाले गुरु को सामान्य मनुष्य समझना। चौथा अपराध है वैदिक ग्रंथों को यथा पुराणों या अन्य दिव्य शास्त्रों को सामान्य ज्ञान की पुस्तकों के रूप में मानना। पाँचवा अपराध यह सोचना है कि भक्तों ने भगवान् के पवित्र नाम को कृत्रिम महत्ता प्रदान की हुई है। असलर तथ्य तो यह है कि भगवान् अपने नाम से अभिन्न हैं। सर्वोच्च आध्यात्मिक अनुभूति तो भगवन्नाम का कीर्तन—हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण, हरे हरे। हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे हरे—है, जो इस युग के लिए संस्तुत है। छठा अपराध है भगवान के पवित्र नाम पर किसी प्रकार की व्याख्या करना। सातवाँ अपराध है भगवन्नाम के कीर्तन के बल पर पापकर्म करना। यह ज्ञात है कि मनुष्य एकमात्र भगवन्नाम का कीर्तन करने से समस्त पापों से मुक्त किया जा सकता है, किन्तु इसीलिए यदि कोई यह सोचे कि वह सभी तरह के पापकर्म करने के लिए स्वतंत्र है, तो यह अपराध का लक्षण है। आठवाँ अपराध है हरे कृष्ण कीर्तन की समता अन्य आध्यात्मिक कार्यों यथा ध्यान, तपस्या या यज्ञ से करना। इन्हें किसी भी स्तर पर समान नहीं बतलाया जा सकता। नौवाँ अपराध है ऐसे व्यक्तियों के समक्ष पवित्र नाम की महत्ता का गुणगान करना जिन्हें उसमें कोई रुचि न हो। दसवाँ अपराध है, आध्यात्मिक अनुशीलन की प्रक्रिया को करते समय किसी वस्तु का स्वामी होने की भ्रान्त धारणा के प्रति अनुरक्ति रखना या शरीर को आत्मा मानना।

जब मनुष्य भगवन्नाम का कीर्तन करते समय इन दसों अपराधों से मुक्त होता है, तो उसमें शारीरिक भावलक्षण उत्पन्न होते हैं, जो पुलकाश्रु कहलाते हैं। पुलक का अर्थ है “सुख का लक्षण” तथा अश्रु का अर्थ है “आँखों में आँसू।” जिस व्यक्ति ने पवित्र नाम का कीर्तन निरपराध भाव से किया हो उसमें सुख तथा अश्रु के लक्षण प्रकट होने चाहिए। इस श्लोक में बतलाया गया है कि जिन लोगों ने भगवान् की महिमा के कीर्तन द्वारा सुख तथा अश्रु के लक्षण वास्तव में विकसित कर लिये हैं, वे भगवद्धाम में प्रवेश करने के पात्र हैं। चैतन्य-चरितामृत में कहा गया है कि यदि हरे कृष्ण कीर्तन करते समय किसी पुरुष में ये लक्षण विकसित नहीं होते तो समझना चाहिए कि अब भी वह अपराधपूर्ण है। इस सन्दर्भ में चैतन्य-चरितामृत में एक सुन्दर उपचार का प्रस्ताव है। आदि लीला (८.३१) में कहा गया है कि यदि कोई श्री चैतन्य महाप्रभु की शरण ग्रहण करता है और केवल भगवन्नाम, हरे कृष्ण, का कीर्तन करता है, तो वह सारे अपराधों से मुक्त हो जाता है।

 
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