श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 15: ईश्वर के साम्राज्य का वर्णन  »  श्लोक 26
 
 
श्लोक  3.15.26 
तद्विश्वगुर्वधिकृतं भुवनैकवन्द्यं
दिव्यं विचित्रविबुधाग्र्यविमानशोचि: ।
आपु: परां मुदमपूर्वमुपेत्य योग-
मायाबलेन मुनयस्तदथो विकुण्ठम् ॥ २६ ॥
 
शब्दार्थ
तत्—तब; विश्व-गुरु—ब्रह्माण्ड के गुरु अर्थात् परमेश्वर द्वारा; अधिकृतम्—अधिकृत; भुवन—लोकों का; एक—एकमात्र; वन्द्यम्—पूजा जाने योग्य; दिव्यम्—आध्यात्मिक; विचित्र—अत्यधिक अलंकृत; विबुध-अछय—भक्तों का (जो विद्वानों में सर्वश्रेष्ठ हैं); विमान—वायुयानों का; शोचि:—प्रकाशित; आपु:—प्राप्त किया; पराम्—सर्वोच्च; मुदम्—सुख; अपूर्वम्— अभूतपूर्व; उपेत्य—प्राप्त करके; योग-माया—आध्यात्मिक शक्ति द्वारा; बलेन—प्रभाव द्वारा; मुनय:—मुनिगण; तत्—वैकुण्ठ; अथो—वह; विकुण्ठम्—विष्णु ।.
 
अनुवाद
 
 इस तरह सनक, सनातन, सनन्दन तथा सनत्कुमार नामक महर्षियों ने अपने योग बल से आध्यात्मिक जगत के उपर्युक्त वैकुण्ठ में पहुँच कर अभूतपूर्व सुख का अनुभव किया। उन्होंने पाया कि आध्यात्मिक आकाश अत्यधिक अलंकृत विमानों से, जो वैकुण्ठ के सर्वश्रेष्ठ भक्तों द्वारा चालित थे, प्रकाशमान था और पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् द्वारा अधिशासित था।
 
तात्पर्य
 पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् अद्वितीय हैं। वे सबों के ऊपर हैं। न तो कोई उनके समान है, न उनसे बड़ा। अतएव उन्हें यहाँ विश्व गुरु कहा गया है। वे सम्पूर्ण भौतिक तथा आध्यात्मिक सृष्टि के आदि पुरुष हैं और भुवनैकवन्द्यम् अर्थात् तीनों लोकों में एकमात्र पूज्य व्यक्ति हैं। आध्यात्मिक आकाश के विमान स्वत: प्रकाशित रहते हैं और भगवान् के महान् भक्तों के द्वारा संचालित होते हैं। दूसरे शब्दों में, वैकुण्ठलोकों में भौतिक जगत में उपलब्ध वस्तुओं की कोई कमी नहीं है—वे उपलब्ध हैं, किन्तु वे अधिक मूल्यवान हैं, क्योंकि वे आध्यात्मिक हैं, अत: शाश्वत तथा आनन्दमय हैं। मुनियों को अभूतपूर्व सुख का अनुभव इसलिए हुआ क्योंकि वैकुण्ठ किसी सामान्य व्यक्ति द्वारा अधिशासित न था। वैकुण्ठलोक कृष्ण के अंशों द्वारा अधिशासित हैं, जो मधुसूदन... जाने जाते हैं। ये दिव्य लोक इसलिए पूजनीय हैं, क्योंकि इनमें स्वयं भगवान् शासन करते हैं। कहा जाता है कि चारों मुनि अपने योग बल से दिव्य आध्यात्मिक आकाश में पहुँचे। यही योग पद्धति की सिद्धि है। प्राणायाम तथा अच्छा स्वास्थ्य बनाने के लिए अनुशासन ही योग सिद्धि के अन्तिम लक्ष्य नहीं हैं। योग प्रणाली सामान्य रूप से अष्टांग योग या सिद्धि के रूप में जानी जाती है। योग सिद्धि के बल से मनुष्य हल्के से हल्का और भारी से भारी हो सकता है। वह जहाँ चाहे जा सकता है और इच्छानुसार ऐश्वर्य प्राप्त कर सकता है। ऐसी आठ सिद्धियाँ हैं। चारों कुमार ऋषि-गण हल्के से हल्का होकर वैकुण्ठ पहुँचे और इस तरह उन्होंने भौतिक जगत के अन्तरिक्ष को पार किया। आधुनिक यांत्रिक अन्तरिक्ष यान इसलिए असफल हैं, क्योंकि वे इस भौतिक सृष्टि के सर्वोच्च क्षेत्र में नहीं पहुँचे सकते और आध्यात्मिक आकाश में तो प्रवेश कर ही नहीं सकते। किन्तु योग सिद्धि से मनुष्य न केवल भौतिक अन्तरिक्ष में यात्रा कर सकता है, अपितु भौतिक अन्तरिक्ष को पार करके आध्यात्मिक आकाश में प्रवेश कर सकता है। हम इस तथ्य को दुर्वासा मुनि तथा महाराज अम्बरीष विषयक घटना से भी जानते हैं। ऐसा समझा जाता है कि दुर्वासा मुनि ने एक वर्ष तक सर्वत्र यात्रा की और वे आध्यात्मिक आकाश में भगवान् नारायण से भेंट करने गये। वर्तमान मानदण्ड के अनुसार विज्ञानियों की गणना है कि यदि कोई प्रकाश की गति से यात्रा कर सके तो इस भौतिक जगत के सर्वोच्च लोक तक पहुँचने में चालीस हजार वर्ष लग जायेंगे। किन्तु योगपद्धति मनुष्य को बिना सीमा या कठिनाई के उठा ले जा सकती है। इस श्लोक में योगमाया शब्द आया है। योगमायाबलेन विकुण्ठम्। आध्यात्मिक जगत तथा अन्य समस्त आध्यात्मिक प्राकट्यों में प्रदर्शित दिव्य सुख योगमाया के बल से सम्भव बन पाते हैं।
 
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