श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 15: ईश्वर के साम्राज्य का वर्णन  »  श्लोक 27
 
 
श्लोक  3.15.27 
तस्मिन्नतीत्य मुनय: षडसज्जमाना:
कक्षा: समानवयसावथ सप्तमायाम् ।
देवावचक्षत गृहीतगदौ परार्ध्य-
केयूरकुण्डलकिरीटविटङ्कवेषौ ॥ २७ ॥
 
शब्दार्थ
तस्मिन्—उस वैकुण्ठ में; अतीत्य—पार कर लेने पर; मुनय:—मुनियों ने; षट्—छह; असज्ज माना:—बिना आकृष्ट हुए; कक्षा:—द्वार; समान—बराबर; वयसौ—आयु; अथ—तत्पश्चात्; सप्तमायाम्—सातवें द्वार पर; देवौ—वैकुण्ठ के दो द्वारपालों; अचक्षत—देखा; गृहीत—लिये हुए; गदौ—गदाएँ; पर-अर्ध्य—सर्वाधिक मूल्यवान; केयूर—बाजूबन्द; कुण्डल—कान के आभूषण; किरीट—मुकुट; विटङ्क—सुन्दर; वेषौ—वस्त्र ।.
 
अनुवाद
 
 भगवान् के आवास वैकुण्ठपुरी के छ: द्वारों को पार करने के बाद और सजावट से तनिक भी आश्चर्यचकित हुए बिना, उन्होंने सातवें द्वार पर एक ही आयु के दो चमचमाते प्राणियों को देखा जो गदाएँ लिए हुए थे और अत्यन्त मूल्यवान आभूषणों, कुण्डलों, हीरों, मुकुटों, वस्त्रों इत्यादि से अलंकृत थे।
 
तात्पर्य
 ये ऋषि वैकुण्ठपुरी में भगवान् को देखने के लिए इतने उत्सुक थे कि उन्होंने उन छह द्वारों की दिव्य सजावट को देखने की परवाह नहीं की जिनसे वे एक एक करके गुजरे थे। किन्तु सातवें द्वार पर उन्हें एक ही आयु के दो द्वारपाल मिले। द्वारपालों के एक ही आयु के होने का महत्त्व यह है कि वैकुण्ठलोकों में वृद्धावस्था नहीं होती, अतएव कोई यह अन्तर नहीं कर सकता कि कौन किससे अधिक आयु का है। वैकुण्ठवासीगण भगवान् नारायण की ही तरह शंख, चक्र, गदा तथा पद्म से अलंकृत रहते हैं।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥