श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 15: ईश्वर के साम्राज्य का वर्णन  »  श्लोक 28
 
 
श्लोक  3.15.28 
मत्तद्विरेफवनमालिकया निवीतौ
विन्यस्तयासितचतुष्टयबाहुमध्ये ।
वक्त्रं भ्रुवा कुटिलया स्फुटनिर्गमाभ्यां
रक्तेक्षणेन च मनाग्रभसं दधानौ ॥ २८ ॥
 
शब्दार्थ
मत्त—उन्मत्त; द्वि-रेफ—भौंरे; वन-मालिकया—ताजे फूलों की माला से; निवीतौ—गर्दन पर लटकते; विन्यस्तया—चारों ओर रखे हुए; असित—नीला; चतुष्टय—चार; बाहु—हाथ; मध्ये—बीच में; वक्त्रम्—मुखमण्डल; भ्रुवा—भौहों से; कुटिलया— टेढ़ी; स्फुट—हुँकारते हुए; निर्गमाभ्याम्—श्वास; रक्त—लालाभ; ईक्षणेन—आँखों से; च—तथा; मनाक्—कुछ कुछ; रभसम्—चंचल, क्षुब्ध; दधानौ—दृष्टि फेरी ।.
 
अनुवाद
 
 दोनों द्वारपाल ताजे फूलों की माला पहने थे, जो मदोन्मत्त भौंरों को आकृष्ट कर रही थीं और उनके गले के चारों ओर तथा उनकी चार नीली बाहों के बीच में पड़ी हुई थीं। अपनी कुटिल भौहों, अतृप्त नथनों तथा लाल लाल आँखों से वे कुछ कुछ क्षुब्ध प्रतीत हो रहे थे।
 
तात्पर्य
 उनकी मालाएँ भौरों के झुंडों को आकृष्ट कर रही थीं, क्योंकि ये मालाएँ ताजे फूलों की थीं। वैकुण्ठलोक में हर वस्तु ताजी, नवीन तथा दिव्य होती है। वैकुण्ठ के निवासियों के शरीर नीलाभ रंग के होते हैं और नारायण के ही समान उनके चार हाथ होते हैं।
 
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