सनक इत्यादि मुनियों ने सभी जगहों के दरवाजों को खोला। उन्हें अपने पराये का कोई विचार नहीं था। उन्होंने खुले मन से स्वेच्छा से उसी तरह सातवें द्वार में प्रवेश किया जिस तरह वे अन्य छह दरवाजों से होकर आये थे, जो सोने तथा हीरों से बने हुए थे।
तात्पर्य
सनक, सनातन, सनन्दन तथा सनत्कुमार महर्षि यद्यपि काफी उम्र के थे, किन्तु अपने को शाश्वत रुप से छोटे बच्चों की तरह बनाए हुए थे। वे दुविधारहित थे और वे दरवाजों में उसी तरह प्रविष्ट हुए जिस तरह छोटे बच्चे अतिक्रमण क्या होता है, उस पर बिना किसी विचार के प्रवेश करते हैं। यह बच्चे का स्वभाव होता है। बच्चा किसी भी स्थान में प्रवेश कर सकता है और उसे कोई नहीं रोकता। निस्सन्देह कि सामान्यतया किसी भी स्थान में जाने के प्रयास के लिए बच्चे का स्वागत होता है, किन्तु यदि बच्चे को दरवाजे में प्रविष्ट होने से रोका जाता है, तो वह बहुत दुखी और क्रुद्ध होता है। यह बालक का स्वभाव है। यहाँ पर वही बात हुई। बच्चों जैसे साधु पुरुष राजमहल के छहों द्वारों में घुसते गये और उन्हें किसी ने नहीं रोका, अतएव जब उन्होंने सातवें द्वार में प्रविष्ट होने का प्रयास किया और उन्हें द्वारपालों द्वारा मना किया गया जिन्होंने अपनी लाठियों से रोका तो स्वभावत: वे अत्यधिक क्रुद्ध तथा दुखी हुए। कोई सामान्य बालक तो चिल्लाया होता, किन्तु ये सामान्य बालक न थे, अत: इन्होंने तुरन्त द्वारपालों को दण्ड देने की तैयारी कर ली, क्योंकि इन द्वारपालों ने बहुत बड़ा अपराध किया था। भारत में आज भी किसी सन्तपुरुष को किसी के द्वार में घुसने से कभी नहीं रोका जाता।
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