हिंदी में पढ़े और सुनें
भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 15: ईश्वर के साम्राज्य का वर्णन  »  श्लोक 31
 
 
श्लोक  3.15.31 
ताभ्यां मिषत्स्वनिमिषेषु निषिध्यमाना:
स्वर्हत्तमा ह्यपि हरे: प्रतिहारपाभ्याम् ।
ऊचु: सुहृत्तमदिद‍ृक्षितभङ्ग ईष-
त्कामानुजेन सहसा त उपप्लुताक्षा: ॥ ३१ ॥
 
शब्दार्थ
ताभ्याम्—उन दोनों द्वारपालों द्वारा; मिषत्सु—इधर उधर देखते हुए; अनिमिषेषु—वैकुण्ठ में रहने वाले देवताओं; निषिध्यमाना:—मना किये जाने पर; सु-अर्हत्तमा:—सर्वोपयुक्त व्यक्तियों द्वारा; हि अपि—यद्यपि; हरे:—भगवान् हरि का; प्रतिहार-पाभ्याम्—दो द्वारपालों द्वारा; ऊचु:—कहा; सुहृत्-तम—अत्यधिक प्रिय; दिदृक्षित—देखने की उत्सुकता; भङ्गे— अवरोध; ईषत्—कुछ कुछ; काम-अनुजेन—काम के छोटे भाई (क्रोध) द्वारा; सहसा—अचानक; ते—वे ऋषि; उपप्लुत— विक्षुब्ध; अक्षा:—आँखें ।.
 
अनुवाद
 
 इस तरह सर्वाधिक उपयुक्त व्यक्ति होते हुए भी जब चारों कुमार अन्य देवताओं के देखते देखते श्री हरि के दो प्रमुख द्वारपालों द्वारा प्रवेश करने से रोक दिये गये तो अपने सर्वाधिक प्रिय स्वामी श्रीहरि को देखने की परम उत्सुकता के कारण उनके नेत्र क्रोधवश सहसा लाल हो गये।
 
तात्पर्य
 वैदिक प्रणाली के अनुसार संन्यासी गेरुवे वस्त्र धारण किये रहता है। यह गेरुवा वेश एक तरह से संन्यासी तथा साधु के लिए कहीं भी जाने के लिए व्यावसायिक दृष्टि से एक पारपत्र (पासपोर्ट) होता है। संन्यासी का कर्तव्य लोगों को कृष्णभावनामृत से प्रबुद्ध करना है। संन्यास आश्रम बितानेवाले लोगों के पास पुरुषोत्तम भगवान् की महिमा तथा श्रेष्ठता का प्रचार करने के अतिरिक्त कोई अन्य कार्य नहीं रहता। अतएव वैदिक समाजशास्त्रीय धारणा यह है कि संन्यासी पर प्रतिबन्ध नहीं होना चाहिए। वह जहाँ भी जाना चाहे उसे जाने देना चाहिए और गृहस्थ से जो भेंट माँगे, उससे उसे इनकार नहीं करना चाहिए। चारों कुमार भगवान् नारायण का दर्शन करने आये थे। सुहृत्तमम् शब्द महत्त्वपूर्ण है, जिसका अर्थ है “समस्त मित्रों में श्रेष्ठ।” जैसाकि भगवद्गीता में भगवान् कृष्ण कहते हैं सुहृदं सर्वभूतानाम्—वे सारे जीवों के सर्वोत्तम मित्र हैं। जीवों का भगवान् से बढक़र जीवों का हितैषी मित्र कोई नहीं हो सकता। वे सबों के प्रति इतने दयालु रहते हैं कि हमारे द्वारा भगवान् के साथ अपने सम्बन्ध को भुला दिये जाने पर भी वे स्वयं आते हैं—कभी सशरीर जिस तरह कि इस पृथ्वी पर भगवान् कृष्ण प्रकट हुए थे तथा कभी कभी अपने भक्त के रूप में जैसाकि श्री चैतन्य महाप्रभु ने किया और कभी कभी वे समस्त पतितात्माओं का उद्धार करने के लिए अपने प्रामाणिक भक्तों को भेजते हैं। अत: वे सबों के सबसे बड़े हितैषी मित्र हैं और कुमारगण उनसे मिलना चाहते थे। द्वारपालों को यह जान लेना चाहिए था कि चारों मुनियों के पास कोई अन्य कार्य नहीं था, अतएव उन्हें महल में प्रविष्ट होने से रोकना उचित नहीं था।

इस श्लोक में अलंकारिक रूप में कहा गया है कि जब मुनियों को प्रियतम भगवान् से मिलने के लिए रोका गया तो सहसा उनमें काम का छोटा भाई प्रकट हुआ। काम का छोटा भाई क्रोध है। यदि किसी की कामना या इच्छा पूरी नहीं होती, तो छोटा भाई क्रोध पीछे-पीछे चला आता है। यहाँ हम यह देख सकते है कि कुमारों जैसे सन्तपुरुष भी क्रुद्ध थे, किन्तु वे अपने स्वार्थ के लिए क्रुद्ध न थे। वे इसलिए क्रुद्ध थे, क्योंकि उन्हें भगवान् से मिलने के लिए महल के भीतर प्रवेश करने से रोका गया था। अतएव इस श्लोक में इस सिद्धान्त की पुष्टि नहीं होती कि सिद्धावस्था में मनुष्य को क्रोध नहीं आना चाहिए। क्रोध मुक्तावस्था में भी आता रहता है। ये चारों साधु भाई, कुमारगण, मुक्त पुरुष माने जाते थे; फिर भी वे क्रुद्ध थे, क्योंकि उन्हें भगवान् की सेवा करने से रोका गया था। एक सामान्य व्यक्ति तथा एक मुक्त पुरुष के क्रोध में यह अन्तर है कि सामान्य व्यक्ति इसलिए क्रुद्ध होता है कि उसकी इन्द्रिय-इच्छाएँ पूरी नहीं होतीं, किन्तु कुमारगण जैसे व्यक्ति तब क्रुद्ध होते हैं जब उन्हें भगवान् की सेवा करने से रोका जाता है।

पिछले श्लोक में स्पष्ट उल्लेख हुआ है कि कुमारगण मुक्त पुरुष थे। विदितात्म-तत्त्व का अर्थ है “जो आत्म-साक्षात्कार के सत्य को समझता है।” जो आत्म-साक्षात्कार के सत्य को नहीं समझता वह अज्ञानी कहलाता है, किन्तु जो आत्मा, परमात्मा, उनके अन्त:सम्बन्ध तथा आत्म-साक्षात्कार में कार्यकलापों को जानता है, वह विदितात्म-तत्त्व कहलाता है। यद्यपि कुमारगण पहले से मुक्त पुरुष थे फिर भी वे क्रुद्ध हुए। यह बिन्दु बहुत महत्त्वपूर्ण है। मुक्त होने पर यह आवश्यक नहीं है कि वह अपने इन्द्रिय-कार्यकलापों को छोड़ दें। इन्द्रिय-कार्यकलाप मुक्तावस्था में भी चलते रहते हैं। किन्तु अन्तर इतना ही होता है कि मुक्तावस्था में इन्द्रिय कार्यकलापों को केवल कृष्णभावनामृत के सन्दर्भ में स्वीकार किया जाता है, जबकि बद्धावस्था में इन्द्रिय कार्यकलाप निजी इन्द्रियतृप्ति के लिए सम्पन्न किये जाते हैं।

 
शेयर करें
       
 
  All glories to Srila Prabhupada. All glories to  वैष्णव भक्त-वृंद
  Disclaimer: copyrights reserved to BBT India and BBT Intl.

 
>  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥