मुनियों ने कहा : ये दोनों व्यक्ति कौन हैं जिन्होंने ऐसी विरोधात्मक मनोवृत्ति विकसित कर रखी है। ये भगवान् की सेवा करने के उच्चतम पद पर नियुक्त हैं और इनसे यह उम्मीद की जाती है कि इन्होंने भगवान् जैसे ही गुण विकसित कर रखे होंगे? ये दोनों व्यक्ति वैकुण्ठ में किस तरह रह रहे हैं? इस भगवद्धाम में किसी शत्रु के आने की सम्भावना कहाँ है? पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् का कोई शत्रु नहीं है। भला उनका कौन ईर्ष्यालु हो सकता है? शायद ये दोनों व्यक्ति कपटी हैं, अतएव अपनी ही तरह होने की अन्यों पर शंका करते हैं।
तात्पर्य
वैकुण्ठलोक के वासियों तथा भौतिक लोक के वासियों में अन्तर यह है कि वैकुण्ठ में सारे निवासी भगवान् की सेवा में लगे रहते हैं और उनके समस्त सद्गुणों से युक्त होते हैं। महापुरुषों ने यह विश्लेषण किया है कि जब कोई बद्धजीव मुक्त होता है और भक्त बनता है, तो भगवान् के लगभग ७९ प्रतिशत सद्गुण उसमें आ जाते हैं। अतएव वैकुण्ठलोक में भगवान् तथा निवासियों के बीच शत्रुता का प्रश्न ही नहीं उठता। इस भौतिक जगत में नागरिक मुख्य प्रशासकों या राज्याध्यक्षों के प्रति शत्रुता रख सकते हैं, किन्तु वैकुण्ठ में ऐसी कोई मनोवृत्ति नहीं होती। जब तक मनुष्य पूरी तरह सद्गुण विकसित नहीं कर लेता तब तक उसे वैकुण्ठ में प्रविष्ट नहीं होने दिया जाता। अच्छाई या सद्गुणशीलता का मूल सिद्धान्त है भगवान् की अधीनता स्वीकार करना। इसीलिए मुनिगण चकित थे कि उन्हें महल में प्रविष्ट होने से रोकने वाले दोनों द्वारपाल वैकुण्ठलोक के वासियों जैसे नहीं थे। कहा जा सकता है कि द्वारपाल का कर्तव्य यह निश्चित करना है कि किसे महल में प्रवेश करने दिया जाय और किसे नहीं। किन्तु इस सन्दर्भ में यह प्रासंगिक नहीं है, क्योंकि वैकुण्ठ में किसी को तब तक प्रविष्ट नहीं होने दिया जाता जब तक वह भगवान् की भक्ति में शतप्रतिशत उन्मुख नहीं हो लेता। वैकुण्ठलोकों में भगवान् का कोई शत्रु प्रवेश नहीं कर सकता। कुमारों ने यह निष्कर्ष निकाला कि द्वारपाल उन्हें केवल इसलिए रोक रहे थे, क्योंकि वे स्वयं कपटी थे।
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