अतएव हम विचार करें कि इन दो संदूषित व्यक्तियों को किस तरह दण्ड दिया जाय। जो दण्ड दिया जाय वह उपयुक्त हो क्योंकि इस तरह से अन्तत: उन्हें लाभ दिया जा सकता है। चूँकि वे वैकुण्ठ जीवन के अस्तित्व में द्वैध पाते हैं, अत: वे संदूषित हैं और इन्हें इस स्थान से भौतिक जगत में भेज दिया जाना चाहिए जहाँ जीवों के तीन प्रकार के शत्रु होते हैं।
तात्पर्य
शुद्ध आत्माएँ भौतिक जगत की अस्तित्वपरक परिस्थितियों में, जो कि परमेश्वर का अपराध विभाग है, क्यों आती हैं? इसका वर्णन भगवद्गीता (७.२७) में हुआ है। यह कहा गया है कि जब तक जीव शुद्ध रहता है, वह परमेश्वर की इच्छाओं से सामञ्जस्य रखता है, किन्तु अशुद्ध होते ही वह परमेश्वर की इच्छाओं से असामञ्जस्य रखने लगता है। संदूषण के कारण उसे इस भौतिक जगत में स्थानान्तरित होने पर विवश किया जाता है जहाँ जीवों के तीन शत्रु होते हैं। ये हैं इच्छा, क्रोध तथा कामवासना। ये तीन शत्रु जीवों को भौतिक जगत में रहते रहने के लिए बाध्य करते हैं और जब कोई उनसे मुक्त हो जाता है, तो वह भगवद्धाम में प्रविष्ट होने का पात्र बन जाता है। इसलिए इन्द्रियतृप्ति का अवसर न मिलने पर मनुष्य को क्रुद्ध नहीं होना चाहिए और उसे आवश्यकता से अधिक पाने के लिए वासनापूर्ण नहीं होना चाहिए। इस श्लोक में स्पष्ट कहा गया है कि दोनों द्वारपालों को भौतिक जगत में भेज दिया जाना चाहिए जहाँ अपराधियों को रहने की अनुमति रहती है। चूँकि अपराध भावना के मूल सिद्धान्त इन्द्रियतृप्ति, क्रोध तथा अनावश्यक कामवासना हैं, अत: जो लोग जीव के इन तीन शत्रुओं द्वारा संचालित होते हैं, वे कभी भी वैकुण्ठलोक नहीं भेजे जाते। लोगों को भगवद्गीता पढ़ कर समझना चाहिए और पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् कृष्ण को सारी वस्तुओं का स्वामी स्वीकार करना चाहिए। उन्हें अपनी इन्द्रियों को तुष्ट करने का प्रयास न करके परम पुरुष की इन्द्रियों को तुष्ट करने का अभ्यास करना चाहिए। कृष्णभावनामृत में प्रशिक्षण से मनुष्य को वैकुण्ठलोक जाने में सहायता मिलेगी।
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