सनक इत्यादि मुनियों ने देखा कि भगवान् विष्णु जो भावमय समाधि में पहले उनके हृदयों के ही भीतर दृष्टिगोचर होते थे अब वे साकार रूप में उनके नेत्रों के सामने दृष्टिगोचर हो रहे हैं। जब वे छाता तथा चामर जैसी साज-सामग्री सहित अपने संगियों के साथ आगे आये तो श्वेत चामर के बालों के गुच्छे धीमे धीमे हिल रहे थे, मानो दो श्वेत हंस हों तथा अनुकूल हवा से छाते से लटक रही मोतियों की झालरें भी हिल रही थीं मानो श्वेत पूर्णचन्द्रमा से अमृत की बूँदें टपक रही हों, अथवा हवा के झोंके से बर्फ पिघल रही हो।
तात्पर्य
इस श्लोक में अचक्षताक्षविषयम् शब्द आया है। भगवान् सामान्य नेत्रों से नहीं दिखते, किन्तु अब वे कुमारों के नेत्रों को दृष्टिगोचर हो रहे थे। अन्य महत्त्वपूर्ण शब्द समाधिभाग्यम् है। जो ध्यानकर्ता अत्यन्त भाग्यशाली होते हैं, वे योग विधि द्वारा भगवान् के विष्णु रूप को अपने हृदयों के भीतर देख सकते हैं। किन्तु उन्हें साक्षात् देखना दूसरी बात है। यह केवल शुद्ध भक्तों के लिए ही सम्भव है। अतएव कुमारों ने जब देखा कि भगवान् अपने संगियों सहित आ रहे हैं, जो छाता तथा चामर लिये हुए हैं, तो वे आश्चर्यचकित रह गये कि वे तो भगवान् का साक्षात् दर्शन कर रहे हैं। ब्रह्म संहिता में कहा गया है कि ईश्वर प्रेम में उच्चस्थ भक्तगण अपने हृदयों के भीतर सदैव भगवान् श्यामसुन्दर का दर्शन करते हैं। किन्तु जब वे परिपक्व हो जाते हैं, तो वही भगवान् साक्षात् उनके समक्ष दिखते हैं। सामान्यजनों को भगवान् दृश्य नहीं हैं, किन्तु जब कोई भगवान् के पवित्र नाम की महत्ता को समझ सकता है और कीर्तन तथा प्रसाद-आस्वादन द्वारा जीभ से आरम्भ करके भगवद्भक्ति में अपने को लगाता है, तो धीरे-धीरे भगवान् स्वयं उसमें प्रकट होते हैं। इस तरह भक्त निरन्तर भगवान् को अपने हृदय में देखता है और अधिक परिपक्व अवस्था में वह उन्हीं भगवान् का साक्षात् दर्शन उसी तरह कर सकता है, जिस तरह हम अन्य वस्तुओं को देखते हैं।
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