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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 15: ईश्वर के साम्राज्य का वर्णन  »  श्लोक 39
 
 
श्लोक  3.15.39 
कृत्‍स्‍नप्रसादसुमुखं स्पृहणीयधाम
स्‍नेहावलोककलया हृदि संस्पृशन्तम् ।
श्यामे पृथावुरसि शोभितया श्रिया स्व-
श्चूडामणिं सुभगयन्तमिवात्मधिष्ण्यम् ॥ ३९ ॥
 
शब्दार्थ
कृत्स्न-प्रसाद—हर एक को आशीर्वाद देते हुए; सु-मुखम्—शुभ मुखमण्डल; स्पृहणीय—वांछनीय; धाम—आश्रय; स्नेह— स्नेह; अवलोक—देखते हुए; कलया—अंश द्वारा; हृदि—हृदय में; संस्पृशन्तम्—स्पर्श करते हुए; श्यामे—साँवले रंग वाले भगवान् के प्रति; पृथौ—चौड़ी; उरसि—छाती पर; शोभितया—सुसज्जित होकर; श्रिया—लक्ष्मी द्वारा; स्व:—स्वर्गलोक; चूडा- मणिम्—चोटी; सुभगयन्तम्—सौभाग्य का विस्तार करते हुए; इव—सदृश; आत्म—भगवान्; धिष्ण्यम्—धाम ।.
 
अनुवाद
 
 भगवान् सारे आनन्द के आगार हैं। उनकी शुभ उपस्थिति हर एक के आशीष के लिए है और उनकी स्नेहमयी मुस्कान तथा चितवन हृदय के अन्तरतम को छू लेती है। भगवान् के सुन्दर शरीर का रंग श्यामल है और उनका चौा वक्षस्थल लक्ष्मीजी का विश्रामस्थल है, जो समस्त स्वर्गलोकों के शिखर रूपी सम्पूर्ण आध्यात्मिक जगत को महिमामंडित करने वाली हैं। इस तरह ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो भगवान् स्वयं ही आध्यात्मिक जगत के सौन्दर्य तथा सौभाग्य का विस्तार कर रहे हों।
 
तात्पर्य
 जब भगवान् आये तो वे सबों से प्रसन्न हुए; इसीलिए यहाँ पर कहा गया है कि कृत्स्न प्रसाद-सुमुखम्। भगवान् जानते थे कि दोषी द्वारपाल भी उनके शुद्ध भक्त थे यद्यपि संयोगवश उन्होंने अन्य भक्तों के चरणों पर अपराध किया था। भक्ति में किसी भक्त के प्रति अपराध करना अतीव घातक होता है। इसीलिए श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा है कि भक्त के प्रति किया गया अपराध उस मत्त हाथी की तरह है, जो इधर उधर दौड़ता है। जब कोई मत्त हाथी किसी बगीचे में घुसता है, तो वह सारे पौधों को कुचल डालता है। उसी तरह शुद्ध भक्त के चरणों पर किया गया अपराध भक्ति में उसके पद की हत्या कर देता है। जहाँ तक भगवान् की बात है वे तनिक भी अपमानित मुद्रा में न थे, क्योंकि वे अपने निष्ठावान भक्त द्वारा किये गये किसी अपराध को स्वीकार नहीं करते। किन्तु भक्त को अन्य भक्त के चरणों पर अपराध करने के प्रति अति सतर्क रहना चाहिए। सबों पर समभाव रखने तथा अपने भक्तों के प्रति विशेष रूप से उन्मुख होने वाले भगवान् ने अपराध करने वालों पर उतनी ही दयादृष्टि से देखा जितनी कि अपराध किये जाने वालों पर। भगवान् की यह प्रवृत्ति दिव्यगुणों के अपार आगार होने के कारण है। भक्तों के प्रति उनकी प्रसन्न मुद्रा इतनी मोहक तथा हृदयस्पर्शी थी कि उनकी मुस्कान तक उनके लिए आकर्षक हो गई। वह आकर्षण न केवल इस भौतिक जगत के समस्त उच्च लोकों के लिए दिव्य था, अपितु उससे परे आध्यात्मिक जगत के लिए भी था। सामान्यतया लोगों को इसका अनुमान नहीं हो पाता कि उन उच्चतर लोकों में स्वाभाविक स्थिति क्या है, जो सारी साज-सामग्री की दृष्टि से अत्यधिक सम्पन्न हैं फिर भी वैकुण्ठलोक इतना सुहावना है तथा इतना दैवी है कि इसकी उपमा मणियों के हार के मध्य मणि या लाकेट से दी जाती है।

इस श्लोक में स्पृहणीय-धाम शब्द सूचित करता है कि भगवान् समस्त आनन्द के आगार हैं, क्योंकि उनमें सारे दिव्य गुण पाये जाते हैं। यद्यपि जो लोग निर्विशेष ब्रह्म में तदाकार होने के आनन्द के लिए लालायित रहते हैं, वे इनमें से केवल कुछ ही गुणों की कामना करते हैं, किन्तु ऐसे भी कुछ इच्छुक हैं, जो भगवान् के दासों के रूप में उनका साक्षात् सान्निध्य चाहते हैं। भगवान् इतने दयालु हैं कि वे हर एक को शरण देते हैं, चाहे वह निर्विशेषवादी हो या भक्त हो। वे निर्विशेषवादियों को अपने निर्विशेष ब्रह्म तेज के रूप में शरण देते हैं जबकि भक्तों को वे अपने निजी धाम वैकुण्ठलोकों में आश्रय प्रदान करते हैं। वे अपने भक्तों के प्रति विशेषरूप से उन्मुख रहते हैं। वे अपनी मुसकान तथा उन पर अपनी चितवन से ही भक्तों के हृदय के अन्तस्तल को छू लेते हैं। वैकुण्ठलोक में भगवान् सदा ही सैकड़ों-हजारों लक्ष्मियों द्वारा सेवित होते हैं जैसाकि ब्रह्म-संहिता में कहा गया है। (लक्ष्मीसहस्रशतसम्भ्रमसेव्यमानम्) इस भौतिक जगत में यदि किसी पर लक्ष्मीजी रंचभर भी कृपा करती हैं, तो वह महिमामंडित हो उठता है, अत: हम इसीसे अनुमान लगा सकते हैं कि आध्यात्मिक जगत में भगवान् का साम्राज्य कितना महिमामंडित है जहाँ सैकड़ों-हजारों लक्ष्मियाँ भगवान् की सेवा में लगी रहती हैं। इस श्लोक की अन्य विशेषता यह है कि इसमें स्पष्ट बतलाया गया है कि वैकुण्ठलोक कहाँ स्थित हैं। वे समस्त स्वर्गलोकों की चोटी पर स्थित हैं, जो कि ब्रह्माण्ड की ऊपरी सीमा सूर्यमंडल के ऊपर हैं और सत्यलोक या ब्रह्मलोक कहलाते हैं। आध्यात्मिक जगत ब्रह्माण्ड के परे स्थित है। इसीलिए यहाँ कहा गया है कि आध्यात्मिक जगत या वैकुण्ठलोक सारे लोकों का शीर्ष है।

 
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