श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 15: ईश्वर के साम्राज्य का वर्णन  »  श्लोक 50
 
 
श्लोक  3.15.50 
प्रादुश्चकर्थ यदिदं पुरुहूत रूपं
तेनेश निर्वृतिमवापुरलं द‍ृशो न: ।
तस्मा इदं भगवते नम इद्विधेम
योऽनात्मनां दुरुदयो भगवान् प्रतीत: ॥ ५० ॥
 
शब्दार्थ
प्रादुश्चकर्थ—आपने प्रकट किया है; यत्—जो; इदम्—यह; पुरुहूत—हे अतीव पूज्य; रूपम्—नित्यरूप; तेन—उस रूप से; ईश—हे प्रभु; निर्वृतिम्—सन्तोष; अवापु:—प्राप्त किया; अलम्—इतना अधिक; दृश:—दृष्टि; न:—हमारी; तस्मै—उस; इदम्—यह; भगवते—भगवान् को; नम:—नमस्कार; इत्—केवल; विधेम—अर्पित करें; य:—जो; अनात्मनाम्—अल्पज्ञों को; दुरुदय:—देखे नहीं जा सकते; भगवान्—भगवान्; प्रतीत:—हमारे द्वारा देखे गए हैं ।.
 
अनुवाद
 
 अत: हे प्रभु, हम भगवान् के रूप में आपके नित्य स्वरूप को सादर नमस्कार करते हैं जिसे आपने इतनी कृपा करके हमारे समक्ष प्रकट किया है। आपका परम नित्य स्वरूप अभागे अल्पज्ञ व्यक्तियों द्वारा नहीं देखा जा सकता, किन्तु हम इसे देखकर अपने मन में तथा दृष्टि में अत्यधिक तुष्ट हैं।
 
तात्पर्य
 चारों मुनि अपने आध्यात्मिक जीवन के आदि में निर्विशेषवादी थे, किन्तु बाद में अपने पिता एवं गुरु ब्रह्मा की कृपा से वे भगवान् के नित्य आध्यात्मिक स्वरूप को समझ गए और अपने को पूर्ण तुष्ट अनुभव करने लगे। दूसरे शब्दों में, जो योगीजन निर्विशेष ब्रह्म या अन्तर्यामी परमात्मा की आकांक्षा करते हैं, वे पूरी तरह तुष्ट नहीं होते और फिर भी अधिक के लिए लालायित रहते हैं। यदि वे अपने मन में तुष्ट हो भी जाँए तो भी आध्यात्मिक दृष्टि से उनकी आँखें तुष्ट नहीं होतीं। किन्तु ज्योंही ऐसे व्यक्ति भगवान् की अनुभूति करते हैं, वे सभी प्रकार से तुष्ट हो जाते हैं। दूसरे शब्दों में, वे भक्त बन जाते हैं और भगवान् के रूप को निरन्तर देखते रहना चाहते हैं। ब्रह्म-संहिता में इसकी पुष्टि हुई है कि जिसने प्रेमरूपी अंजन को अपनी आँखों में लेप करके कृष्ण का दिव्य प्रेम विकसित कर लिया है, वह भगवान् के दिव्य रूप का निरन्तर दर्शन करता है। इस सन्दर्भ में प्रयुक्त विशिष्ट शब्द अनात्मनाम् उनको इंगित करता है जिनका अपने मन तथा इन्द्रियों पर कोई नियंत्रण नहीं होता, अत: जो चिन्तन करते हैं और भगवान् से तदाकार हो जाना चाहते हैं। ऐसे लोग भगवान् के नित्य रूप का दर्शन करने का आनन्द प्राप्त नहीं कर सकते। निर्विशेषवादियों एवं तथाकथित योगियों के लिए भगवान् सदैव योगमाया के पर्दे में छिपे रहते हैं। भगवद्गीता कहती है कि जब भगवान् कृष्ण इस पृथ्वी पर विद्यमान थे और सबों के द्वारा दृश्य थे तब भी निर्विशेषवादी एवं तथाकथित योगी उनका दर्शन नहीं कर पाये, क्योंकि वे भक्तिमयी दृष्टि से विहीन थे। निर्विशेषवादियों एवं तथाकथित योगियों का सिद्धान्त है कि परमेश्वर तभी कोई विशेष रूप धारण करते हैं जब वे माया के सम्पर्क में आते हैं, यद्यपि वास्तव में उनके कोई रूप नहीं होता। निर्विशेषवादियों एवं तथाकथित योगियों की यह धारणा उन्हें भगवान् के यथारूप दर्शन करने से रोकती है। इसीलिए भगवान् ऐसे अभक्तों की दृष्टि से सदैव ओझल रहते हैं। चारों मुनि भगवान् के प्रति इतनी कृतज्ञता अनुभव कर रहे थे कि उन्होंने उनको बारम्बार नमस्कार किया।
 
इस प्रकार श्रीमद्भागवत के तृतीय स्कंध के अन्तर्गत “ईश्वर के साम्राज्य का वर्णन” नामक पन्द्रहवें अध्याय के भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुए।
 
 
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