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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 16: वैकुण्ठ के दो द्वारपालों, जय-विजय को मुनियों द्वारा शाप  »  श्लोक 10
 
 
श्लोक  3.16.10 
ये मे तनूर्द्विजवरान्दुहतीर्मदीया
भूतान्यलब्धशरणानि च भेदबुद्ध्या ।
द्रक्ष्यन्त्यघक्षतद‍ृशो ह्यहिमन्यवस्तान्
गृध्रा रुषा मम कुषन्त्यधिदण्डनेतु: ॥ १० ॥
 
शब्दार्थ
ये—जो पुरुष; मे—मेरा; तनू:—शरीर; द्विज-वरान्—ब्राह्मणों में सर्वश्रेष्ठ; दुहती:—गौवें; मदीया:—मुझसे सम्बन्धित; भूतानि—जीव; अलब्ध-शरणानि—आश्रयविहीन; —तथा; भेद-बुद्ध्या—भिन्न मानते हुए; द्रक्ष्यन्ति—देखते हैं; अघ—पाप के द्वारा; क्षत—क्षतिग्रस्त; दृश:—निर्णय की शक्ति; हि—क्योंकि; अहि—सर्पवत्; मन्यव:—क्रुद्ध; तान्—उन्हीं व्यक्तियों को; गृध्रा:—गीध जैसे दूत; रुषा—क्रोध से; मम—मेरे; कुषन्ति—नोच डालते हैं; अधिदण्ड-नेतु:—दण्ड के अधीक्षक, यमराज का ।.
 
अनुवाद
 
 ब्राह्मण, गौवें तथा निस्सहाय प्राणी मेरे ही शरीर हैं। जिन लोगों की निर्णय शक्ति अपने पाप के कारण क्षतिग्रस्त हो चुकी है वे इन्हें मुझसे पृथक् रूप में देखते हैं। वे क्रुद्ध सर्पों के समान हैं और वे पापी पुरुषों के अधीक्षक यमराज के गीध जैसे दूतों की चोचों से क्रोध में नोच डाले जाते हैं।
 
तात्पर्य
 ब्रह्म-संहिता के अनुसार गौवें, ब्राह्मण, स्त्रियाँ, बच्चे तथा वृद्ध पुरुष निस्सहाय प्राणी हैं। इन पाँचों में से ब्राह्मणों तथा गौवों का इस श्लोक में विशेष उल्लेख हुआ है, क्योंकि भगवान् ब्राह्मणों तथा गौवों के हित के विषय में सदा चिन्तित रहते हैं और इसी रूप में वन्दित होते हैं। अतएव भगवान् विशेष रूप से उपदेश देते हैं कि किसी को इन पाँचों से, विशेष रूप से गौवों तथा ब्राह्मणों से, ईर्ष्या नहीं करनी चाहिए। भागवत के किन्हीं किन्हीं पाठों में दुहती: के स्थान पर दुहित्रि: शब्द का प्रयोग मिलता हैं। किन्तु दोनों ही शब्दों से अर्थ एक ही निकलता है। दुहती: का अर्थ “गाय” है और दुहित्रि: का भी अर्थ “गाय” हो सकता है, क्योंकि गाय को सूर्यदेव की पुत्री माना जाता है। जिस तरह से बच्चों की देखरेख उनके माता-पिता द्वारा की जाती है उसी तरह स्त्री-वर्ग की देखरेख पिता, पति या सयाने पुत्र द्वारा की जानी चाहिए। जो लोग असहाय हैं उनकी देखरेख उनके अभिभावकों द्वारा की जानी चाहिए अन्यथा वे यमराज द्वारा दण्डित किये जायेंगे, क्योंकि यमराज भगवान् द्वारा पापी प्राणियों के कार्यकलापों का निरीक्षण करने के लिए नियुक्त हैं। यहाँ पर यमराज के सहायकों या दूतों की उपमा गीधों से दी गई है और जो लोग अपने रक्ष्यों की रक्षा करने का कर्तव्य नहीं निभाते उनकी तुलना सर्पों से की गई हैं। गीध सर्पों के साथ बहुत ही बुरी तरह से बर्ताव करते हैं; उसी तरह दूत असावधान अभिभावकों के साथ बुरी तरह पेश आते हैं।
 
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