श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 16: वैकुण्ठ के दो द्वारपालों, जय-विजय को मुनियों द्वारा शाप  »  श्लोक 12
 
 
श्लोक  3.16.12 
तन्मे स्वभर्तुरवसायमलक्षमाणौ
युष्मद्वय‍‌तिक्रमगतिं प्रतिपद्य सद्य: ।
भूयो ममान्तिकमितां तदनुग्रहो मे
यत्कल्पतामचिरतो भृतयोर्विवास: ॥ १२ ॥
 
शब्दार्थ
तत्—इसलिए; मे—मेरा; स्व-भर्तु:—अपने स्वामी का; अवसायम्—मनोभाव; अलक्षमाणौ—न जानते हुए; युष्मत्—तुम्हारे विरुद्ध; व्यतिक्रम—अपराध; गतिम्—फल; प्रतिपद्य—पाकर; सद्य:—तुरन्त; भूय:—पुन:; मम अन्तिकम्—मेरे निकट; इताम्—प्राप्त करते हैं; तत्—वह; अनुग्रह:—कृपा; मे—मुझको; यत्—जो; कल्पताम्—व्यवस्थित हो; अचिरत:—शीघ्र ही; भृतयो:—इन दोनों सेवकों का; विवास:—निर्वासन, देश निकाला ।.
 
अनुवाद
 
 मेरे इन सेवकों ने अपने स्वामी के मनोभाव को न जानते हुए आपके प्रति अपराध किया है, इसलिए मैं इसे अपने प्रति किया गया अनुग्रह मानूँगा यदि आप यह आदेश दें कि वे मेरे पास शीघ्र ही लौट आयें तथा मेरे धाम से उनका निर्वासन-काल शीघ्र ही समाप्त हो जाय।
 
तात्पर्य
 इस कथन से हम समझ सकते हैं कि भगवान् अपने सेवकों को वैकुण्ठ वापस लाने के लिए कितने चिन्तित हैं। इसलिए यह घटना सिद्ध करती है कि जो लोग एक बार वैकुण्ठ में प्रविष्ट हो चुके हैं, वे कभी नीचे नहीं गिर सकते। जय तथा विजय का मामला पतन का नहीं है, यह तो मात्र एक घटना है। ऐसे भक्तों को जल्द से जल्द वैकुण्ठ वापस लाने के लिए भगवान् सदैव चिन्तित रहते हैं। यह कल्पना करनी होगी कि भगवान् तथा भक्तों के मध्य किसी प्रकार की भ्रान्ति की संभावना नहीं रहती, किन्तु जब एक भक्त तथा दूसरे भक्त के बीच कोई विभेद या व्यवधान आता है, तो भक्त को परिणाम भोगना पड़ता है, यद्यपि यह कष्ट क्षणिक होता है। भगवान् अपने भक्तों पर इतने दयालु हैं कि उन्होंने द्वारपालों के अपराध का सारा भार अपने ऊपर ले लिया और मुनियों से प्रार्थना की कि वे उन्हें ऐसी सुविधाएँ प्रदान करें जिससे वे जल्दी से जल्दी वैकुण्ठ वापस आ सकें।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥