श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 16: वैकुण्ठ के दो द्वारपालों, जय-विजय को मुनियों द्वारा शाप  »  श्लोक 16
 
 
श्लोक  3.16.16 
ऋषय ऊचु:
न वयं भगवन् विद्मस्तव देव चिकीर्षितम् ।
कृतो मेऽनुग्रहश्चेति यदध्यक्ष: प्रभाषसे ॥ १६ ॥
 
शब्दार्थ
ऋषय:—ऋषियों ने; ऊचु:—कहा; न—नहीं; वयम्—हम; भगवन्—हे भगवान्; विद्म:—जानते थे; तव—तुम्हारा; देव—हे प्रभु; चिकीर्षितम्—करने की इच्छा; कृत:—किया हुआ; मे—मेरे प्रति; अनुग्रह:—कृपा; च—तथा; इति—इस प्रकार; यत्— जो; अध्यक्ष:—परम शासक; प्रभाषसे—तुम कहते हो ।.
 
अनुवाद
 
 ऋषियों ने कहा : हे भगवन्, हम यह नहीं जान पा रहे कि आप हमारे लिए क्या करना चाहते हैं, क्योंकि आप सबों के परम शासक होते हुए भी हमारे पक्ष में बोल रहे हैं मानो हमने आपके साथ कोई अच्छाई की हो।
 
तात्पर्य
 मुनिगण यह जान गये कि पुरुषोत्तम भगवान्, जो सबों के ऊपर हैं, इस तरह बोल रहे हैं, मानो उनसे कोई गलती हो गई हो। अतएव उनके लिए भगवान् के शब्दों को समझ पाना कठिन हो रहा था। किन्तु वे यह समझ गये कि भगवान् ऐसे विनीत स्वर में इसलिए बोल रहे हैं जिससे वे अपना सर्व-दयामय अनुग्रह उन्हें दिखा सकें।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥