श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 16: वैकुण्ठ के दो द्वारपालों, जय-विजय को मुनियों द्वारा शाप  »  श्लोक 2
 
 
श्लोक  3.16.2 
श्रीभगवानुवाच
एतौ तौ पार्षदौ मह्यं जयो विजय एव च ।
कदर्थीकृत्य मां यद्वो बह्वक्रातामतिक्रमम् ॥ २ ॥
 
शब्दार्थ
श्री-भगवान् उवाच—भगवान् ने कहा; एतौ—ये दोनों; तौ—वे; पार्षदौ—परिचर; मह्यम्—मेरे; जय:—जय नामक; विजय:—विजय नामक; एव—निश्चय ही; च—तथा; कदर्थी-कृत्य—अवहेलना करके; माम्—मुझको; यत्—जो; व:— तुम्हारे विरुद्ध; बहु—अत्यधिक; अक्राताम्—किया है; अतिक्रमम्—अपराध ।.
 
अनुवाद
 
 भगवान् ने कहा : जय तथा विजय नामक मेरे इन परिचरों ने मेरी अवज्ञा करके आपके प्रति महान् अपराध किया है।
 
तात्पर्य
 भगवद्भक्त के चरणों पर अपराध करना एक भारी दोष है। यदि जीव वैकुण्ठलोक भी पहुँच जाय तो भी सम्भावना बनी रहती है कि वह अपराध करे, किन्तु अन्तर यही है कि जब वह वैकुण्ठ लोक में होता है और यदि संयोगवश वहाँ कोई अपराध करता भी है, तो भगवान् उसको बचा लेते हैं। भगवान् तथा सेवक के बर्तावों की यही विशिष्टता है, जैसाकि जय तथा विजय से सम्बन्धित प्रस्तुत घटना में देखा जाता है। यहाँ पर प्रयुक्त अतिक्रमम् शब्द सूचित करता है कि भक्त का अपमान करते समय मनुष्य स्वयं भगवान् की उपेक्षा कर देता है।

द्वारपालों ने गलती से मुनियों को वैकुण्ठलोक में प्रवेश करने से रोका, किन्तु क्योंकि वे भगवान् की दिव्य सेवा में लगे थे, अतएव बढ़े-चढ़े भक्तों को आशा न थी कि वे विनष्ट हो सकते हैं। उस स्थान पर भगवान् की उपस्थिति भक्तों के हृदयों को अत्यन्त मोहक थी। भगवान् समझ गये कि असली झंझट तो उनके चरणकमलों का मुनियों को न दिखना था, इसीलिए उन्होंने स्वयं चलकर उन्हें प्रसन्न करना चाहा। भगवान् इतने दयालु हैं कि यदि भक्त को कोई अवरोध होता है, तो वे स्थिति को इस तरह सँभालते हैं कि भक्त को उनके चरणकमलों के दर्शन से विहीन नहीं होना पड़ता। हरिदास ठाकुर के जीवन में इसका अच्छा उदाहरण मिलता है। जब चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ पुरी में रह रहे थे तो हरिदास ठाकुर, जो जन्मना मुसलमान थे, उनके साथ थे। हिन्दू मन्दिरों में, विशेष रूप से उन दिनों, केवल हिन्दू को ही प्रवेश करने की अनुमति दी जाती थी। यद्यपि आचरण से हरिदास ठाकुर सर्वोच्च हिन्दू थे तो भी वे अपने को मुसलमान मानते थे और उन्होंने मन्दिर में प्रवेश नहीं किया। श्री चैतन्य महाप्रभु उनकी दीनता को समझ चुके थे और चूँकि वे मन्दिर में दर्शन करने नहीं गए थे, अत: श्री चैतन्य महाप्रभु, जो जगन्नाथ जी से अभिन्न हैं, हरिदास ठाकुर के पास नित्य ही आते और उनके साथ बैठते थे। यहाँ पर श्रीमद्भागवत में भी हम भगवान् के इसी आचरण को पाते हैं। उनके भक्तों को उनके चरणकमलों का दर्शन पाने से रोका गया था, किन्तु भगवान् उन्हीं चरणकमलों से चलकर उन्हें देखने आये जिसकी उन्हें कामना थी। यह बात भी महत्त्वपूर्ण है कि लक्ष्मीजी उन के साथ थीं। लक्ष्मी देवी सामान्य व्यक्तियों को नहीं दिखतीं, किन्तु भगवान् इतने कृपालु थे कि यद्यपि भक्तों ने ऐसे सम्मान की कामना नहीं की थी, तो भी वे लक्ष्मीजी के साथ उनके समक्ष प्रकट हुए।

 
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