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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 16: वैकुण्ठ के दो द्वारपालों, जय-विजय को मुनियों द्वारा शाप  »  श्लोक 22
 
 
श्लोक  3.16.22 
धर्मस्य ते भगवतस्त्रियुग त्रिभि: स्वै:
पद्‍‌भिश्चराचरमिदं द्विजदेवतार्थम् ।
नूनं भृतं तदभिघाति रजस्तमश्च
सत्त्वेन नो वरदया तनुवा निरस्य ॥ २२ ॥
 
शब्दार्थ
धर्मस्य—धर्मस्वरूप; ते—तुम्हारा; भगवत:—भगवान् का; त्रि-युग—तीनों युगों में प्रकट होने वाले आप; त्रिभि:—तीन; स्वै:—अपने; पद्भि:—पाँवों द्वारा; चर-अचरम्—चर तथा अचर; इदम्—यह ब्रह्माण्ड; द्विज—दो बार जन्म लेने वाला; देवता—देवता; अर्थम्—के लिए; नूनम्—किन्तु; भृतम्—सुरक्षित; तत्—वे पाँव; अभिघाति—विनष्ट करते हुए; रज:— रजोगुण; तम:—तमोगुण; —तथा; सत्त्वेन—सतोगुण का; न:—हमको; वर-दया—सारे आशीर्वाद देते हुए; तनुवा—अपने दिव्य रूप द्वारा; निरस्य—भगाकर ।.
 
अनुवाद
 
 हे प्रभु, आप साक्षात् धर्म हैं। अत: आप तीनों युगों में अपने को प्रकट करते हैं और इस तरह इस ब्रह्माण्ड की रक्षा करते हैं जिसमें चर तथा अचर प्राणी रहते हैं। आप शुद्ध सत्त्व रूप तथा समस्त आशीषों को प्रदान करने वाली कृपा से देवताओं तथा द्विजों के रजो तथा तमो गुणों को भगा दें।
 
तात्पर्य
 इस श्लोक में भगवान् को त्रियुग—सत्य, द्वापर तथा त्रेता—इन तीनों युगों में प्रकट होने वाला कहा गया है। चतुर्थ युग अथवा कलियुग में उनके प्रकट होने का यहाँ उल्लेख नहीं हुआ। वैदिक वाङ्मय में वर्णन हुआ है कि वे कलियुग में छन्न अवतार के रूप में आते हैं, किन्तु प्रकट अवतार के रूप में नहीं आते। किन्तु अन्य युगों में भगवान् प्रकट अवतार होते हैं, इसीलिए उन्हें त्रियुग कहकर सम्बोधित किया गया है।

श्रीधर स्वामी ने त्रियुग का वर्णन इस प्रकार किया है : युग का अर्थ है “जोड़ा” तथा त्रि का अर्थ है “तीन।” भगवान् अपने छह ऐश्वर्यों के द्वारा तीन जोड़ों या ऐश्वर्य के तीन जोड़ों के रूप में प्रकट होते हैं। इस तरह उन्हें त्रियुग के रूप में सम्बोधित किया जा सकता है। भगवान् धार्मिक सिद्धान्तों के साक्षात् रूप हैं। तीन युगों में धार्मिक सिद्धान्तों की रक्षा तीन प्रकार की आध्यात्मिक संस्कृति के द्वारा की जाती है जिनके नाम हैं तप, शौच तथा दया। इस तरह से भी भगवान् त्रियुग कहलाते हैं। कलियुग में आध्यात्मिक संस्कृति कि ये तीन आवश्यक अनिवार्यताएँ अनुपस्थित सी रहती हैं, किन्तु भगवान् इतने दयालु हैं कि कलियुग के इन तीनों आध्यात्मिक गुणों से रहित होने पर भी वे आते हैं और श्री चैतन्य महाप्रभु के रूप में छन्न अवतार के तौर पर इस युग के लोगों की रक्षा करते हैं। श्री चैतन्य महाप्रभु छन्न अवतार कहलाते हैं। यद्यपि वे स्वयं कृष्ण हैं, किन्तु वे कृष्ण के भक्त रूप में अपने को प्रस्तुत करते हैं, साक्षात् कृष्ण रूप में नहीं। इसलिए भक्तगण श्री चैतन्य महाप्रभु से प्रार्थना करते हैं कि वे इस युग की सर्वाधिक प्रमुख सम्पत्तियों—रजो तथा तमो गुणों—को दूर कर दें। कृष्णभावनामृत आन्दोलन में मनुष्य श्री चैतन्य द्वारा प्रवर्तित भगवान् के नाम, हरे कृष्ण, हरे कृष्ण का कीर्तन करके रजो तथा तमो गुणों को अपने से दूर कर सकता है।

चारों कुमार रजो तथा तमो गुणों में अपनी स्थिति से ज्ञात थे, क्योंकि वैकुण्ठ में होते हुए भी उन्होंने भगवान् के भक्तों को शाप देना चाहा। चूँकि उन्हें अपनी दुबर्लता का भान था, अत: उन्होंने अपने में शेष रजो तथा तमो गुणों को दूर करने के लिए भगवान् से प्रार्थना की। तीन दिव्य गुण—शौच, तप तथा दया—द्विजों तथा देवताओं के गुण हैं। जो सतोगुण में स्थित नहीं हैं, वे आध्यात्मिक संस्कृति के इन तीन सिद्धान्तों को स्वीकार नहीं कर सकते। इसलिए कृष्णभावनामृत आन्दोलन के लिए तीन पापकर्म हैं जिनकी मनाही की जाती है। ये हैं अवैध यौन, मादक द्रव्य सेवन तथा कृष्ण को अर्पित प्रसाद के अतिरिक्त अन्य भोजन खाना। ये तीनों निषेध तपस्या, शौच तथा दया के सिद्धान्तों पर आधारित हैं। भक्तगण दयालु होते हैं, क्योंकि वे दीन पशुओं को नहीं मारते, तथा स्वच्छ रहते हैं, क्योंकि वे अवांछित खाद्य पदार्थों तथा अवांछित आदतों के कल्मष से मुक्त रहते हैं। तपस्या का प्रतिनिधित्व नियंत्रित यौन जीवन द्वारा किया जाता है। चारों कुमारों की प्रार्थनाओं द्वारा इंगित किये गये इन सिद्धान्तों का पालन उन भक्तों द्वारा किया जाना चाहिए जो कृष्णभावनामृत में लगे हुए हैं।

 
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