प्रिय प्रभु, आप नहीं चाहते कि शुभ मार्ग को विनष्ट किया जाय, क्योंकि आप समस्त शिष्टाचार के आगार हैं। आप सामान्य लोगों के लाभ हेतु अपनी बलवती शक्ति से दुष्ट तत्त्व को विनष्ट करते हैं। आप तीनों सृष्टियों के स्वामी तथा पूरे ब्रह्माण्ड के पालक हैं। अतएव आपके विनीत व्यवहार से आपकी शक्ति घटती नहीं, प्रत्युत इस विनम्रता द्वारा आप अपनी दिव्य लीलाओं का प्रदर्शन करते हैं।
तात्पर्य
ग्वलाबाल बनने से, या सुदामा ब्राह्मण को अथवा नन्द महाराज, वसुदेव, महाराज युधिष्ठिर तथा पाण्डवों की माता कुन्ती जैसे भक्तों को सम्मान देने से, भगवान् कृष्ण के पद में कोई कमी नहीं आई। प्रत्येक व्यक्ति जानता था कि वे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् कृष्ण थे; फिर भी उनका व्यवहार आदर्शमय था। भगवान् सच्चिदानन्द विग्रह हैं; उनका स्वरूप पूर्णतया आध्यात्मिक, आनन्द तथा ज्ञान से पूर्ण एवं नित्य है। चूँकि सारे जीव उनके अंश हैं, अत: मूलत: वे भी भगवान् के नित्य रूप के उसी गुण से सम्बद्ध हैं जिन से स्वयं भगवान्, किन्तु जब वे अपनी विस्मृति के कारण भौतिक शक्ति माया के संसर्ग में आते हैं, तो उनका अस्तित्व सम्बन्धी स्वभाव प्रच्छन्न हो जाता है। हमें भगवान् कृष्ण के आविर्भाव को इसी भाव से देखना चाहिए जिस भाव से कुमार उनसे प्रार्थना करते हैं। वे शाश्वत रूप से वृन्दावन के ग्वालबाल हैं, वे कुरुक्षेत्र युद्ध के नित्य नायक हैं, वे द्वारका के नित्य ऐश्वर्यवान् राजकुमार हैं और वृन्दावन की गोपिकाओं के प्रेमी हैं। उनके सारे प्राकट्य सार्थक हैं, क्योंकि वे उन बद्धजीवों को उनके असली गुण प्रदर्शित करते हैं जिन्होंने परमेश्वर के साथ अपने सम्बन्ध को भुला दिया है। वे सारे कार्य उन्हीं के हितार्थ करते हैं। कृष्ण की इच्छाओं से तथा अर्जुन के माध्यम से कुरुक्षेत्र युद्ध में जो बल का प्रदर्शन हुआ वह भी आवश्यक था, क्योंकि जब लोग अधिक अधार्मिक बन जाते हैं, तो बल आवश्यक हो जाता है। इस सन्दर्भ में अहिंसा धूर्तता है।
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