श्रीमद् भागवतम
 
हिंदी में पढ़े और सुनें
भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 16: वैकुण्ठ के दो द्वारपालों, जय-विजय को मुनियों द्वारा शाप  »  श्लोक 31
 
 
श्लोक  3.16.31 
मयि संरम्भयोगेन निस्तीर्य ब्रह्महेलनम् ।
प्रत्येष्यतं निकाशं मे कालेनाल्पीयसा पुन: ॥ ३१ ॥
 
शब्दार्थ
मयि—मुझमें; संरम्भ-योगेन—क्रोध में योग के अभ्यास द्वारा; निस्तीर्य—से मुक्त किया गया; ब्रह्म-हेलनम्—ब्राह्मणों की अवज्ञा का फल; प्रत्येष्यतम्—वापस आयेंगे; निकाशम्—निकट; मे—मेरे; कालेन—कालक्रम में; अल्पीयसा—अत्यन्त अल्प; पुन:—फिर ।.
 
अनुवाद
 
 भगवान् ने जय तथा विजय नामक दोनों वैकुण्ठवासियों को आश्वस्त किया : क्रोध में योगाभ्यास द्वारा तुम ब्राह्मणों की अवज्ञा करने के पाप से मुक्त हो जाओगे और अत्यल्प अवधि में मेरे पास वापस आ जाओगे।
 
तात्पर्य
 भगवान् ने जय तथा विजय नामक दोनों द्वारपालों को यह सलाह दी कि क्रोध में भक्तियोग के अभ्यास के बल पर वे ब्राह्मण-शाप से मुक्त हो जायेंगे। श्रील मध्व मुनि ने इस सन्दर्भ में टिप्पणी की है कि भक्तियोग का अभ्यास करने से मनुष्य सारे पापों से मुक्त हो सकता है—यहाँ तक कि ब्रह्मशाप अर्थात् ब्राह्मण द्वारा दिया गया शाप जिसका किसी अन्य साधन से निवारण नहीं किया जा सकता भक्तियोग द्वारा निवारित हो सकता है।

मनुष्य भक्तियोग का अभ्यास कई रसों में कर सकता है। रस बारह हैं—पाँच प्राथमिक तथा सात गौण। पाँच प्रमुख रसों से प्रत्यक्ष भक्तियोग की रचना होती है, किन्तु सात गौण रस अप्रत्यक्ष होकर भी भक्तियोग के ही अन्तर्गत गिने जाते हैं, यदि उनका प्रयोग भगवान् की सेवा में किया जाए। दूसरे शब्दों में, भक्तियोग में सभी सम्मिलित हैं। यदि कोई किसी तरह से पुरुषोत्तम भगवान् के प्रति आसक्त हो जाता है, तो वह भक्तियोग में लग जाता है जैसाकि श्रीमद्भागवत (१०.२९.१५) में वर्णन हुआ है— कामं क्रोधं भयम्। गोपियाँ काम-सम्बन्ध में भक्तियोग द्वारा कृष्ण के प्रति आकृष्ट थीं। इसी तरह कंस अपनी मृत्यु के भय के कारण भक्तियोग के प्रति आसक्त था। इस तरह भक्तियोग इतना शक्तिशाली है कि भगवान् का शत्रु बनने तथा सदैव उनके विषय में सोचने पर अतिशीघ्र मनुष्य का उद्धार हो सकता है। कहा गया है—विष्णु भक्त: स्मृतो दैव आसुरस्तद् विपर्यय:—विष्णु के भक्त देवता कहलाते हैं जबकि अभक्तगण असुर कहलाते हैं। किन्तु भक्तियोग इतना शक्तिशाली है कि सुर तथा असुर दोनों ही इससे लाभ उठा सकते हैं, यदि वे भगवान् का सदैव चिन्तन करें। भक्तियोग का मूल सिद्धान्त है परमेश्वर के विषय में निरन्तर चिन्तन करना। भगवद्गीता (१८.६५) में भगवान् कहते हैं—मन्मना भव मद्भक्त:—सदैव मेरा चिन्तन करो। चाहे कोई जिस तरह से चिन्तन करे इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता; भगवान् का चिन्तन करना ही भक्तियोग का मूल सिद्धान्त है।

भौतिक लोकों में पापकर्मों की विभिन्न कोटियाँ हैं जिनमें से ब्राह्मण या वैष्णव का अनादर करना सबसे अधिक पापपूर्ण है। यहाँ पर स्पष्ट कहा गया है कि मनुष्य इस गम्भीर पाप से भी मात्र विष्णु का चिन्तन करके, वह भी अनुकूल रीति से नहीं, अपितु क्रोध में करके, छुटकारा पा सकता है। इस तरह जो अभक्तगण सदैव विष्णु का चिन्तन करते हैं, वे भी सारे पापकर्मों से मुक्त हो जाते हैं। कृष्णभावनामृत सर्वोच्च प्रकार की सोच है। इस युग में भगवान् विष्णु का चिन्तन हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण, हरे हरे। हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे हरे कीर्तन द्वारा किया जाता है। भागवत के कथनों से ऐसा लगता है कि यदि कोई कृष्ण का चिन्तन शत्रु के रूप में भी करता है, तो यह विशेष योग्यता—विष्णु या कृष्ण का चिन्तन—उस के सारे पापों को धो डालता है।

 
शेयर करें
       
 
  All glories to Srila Prabhupada. All glories to वैष्णव भक्त-वृंद
  Disclaimer: copyrights reserved to BBT India and BBT Intl.

 
About Us | Terms & Conditions
Privacy Policy | Refund Policy
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥