श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 16: वैकुण्ठ के दो द्वारपालों, जय-विजय को मुनियों द्वारा शाप  »  श्लोक 32
 
 
श्लोक  3.16.32 
द्वा:स्थावादिश्य भगवान् विमानश्रेणिभूषणम् ।
सर्वातिशयया लक्ष्म्या जुष्टं स्वं धिष्ण्यमाविशत् ॥ ३२ ॥
 
शब्दार्थ
द्वा:-स्थौ—द्वारपालों को; आदिश्य—आदेश देकर; भगवान्—भगवान्; विमान-श्रेणि-भूषणम्—उच्च कोटि के विमानों से सदैव विभूषित; सर्व-अतिशयया—हर प्रकार से अत्यधिक ऐश्वर्यशाली; लक्ष्म्या—ऐश्वर्य; जुष्टम्—से सजाया गया; स्वम्— अपने; धिष्ण्यम्—धाम में; आविशत्—वापस चले गये ।.
 
अनुवाद
 
 वैकुण्ठ के द्वार पर इस प्रकार बोलकर भगवान् अपने धाम लौट गये जहाँ पर अनेक स्वर्गिक विमान तथा सर्वोपरि सम्पत्ति तथा चमक-दमक रहती है।
 
तात्पर्य
 इस श्लोक से स्पष्ट है कि सारी घटनाएँ वैकुण्ठलोक के प्रवेश द्वार पर घटीं। दूसरे शब्दों में, मुनिगण वस्तुत: वैकुण्ठलोक के भीतर नहीं, अपितु द्वार पर थे। यह पूछा जा सकता है कि, “यदि वे वैकुण्ठलोक में प्रविष्ट हुए तो फिर वे भौतिक जगत में किस तरह लौट पाये?” किन्तु वास्तव में उन्होंने प्रवेश नहीं किया, अतएव वे लौट आये। ऐसी ही अनेक घटनाएँ हैं जहाँ महान् योगी तथा ब्राह्मण अपने योगाभ्यास के बल पर इस भौतिक जगत से वैकुण्ठलोक गये किन्तु उन्हें वहाँ रुकना नहीं था। वे वापस आ गये। यहाँ पर इसकी भी पुष्टि की गई है कि भगवान् अनेक वैकुण्ठ के विमानों से घिरे थे। यहाँ पर वैकुण्ठलोक को भव्य ऐश्वर्य से युक्त बताया गया है, जो इस भौतिक जगत से कहीं अधिक था।

देवताओं समेत अन्य सारे जीव ब्रह्मा से उत्पन्न हैं और ब्रह्मा भगवान् विष्णु से उत्पन्न हैं। भगवद्गीता के दसवें अध्याय में कृष्ण कहते हैं—अहं सर्वस्य प्रभव:—भगवान् विष्णु भौतिक जगत की समस्त अभिव्यक्तियों के उद्गम हैं। जो यह जानते हैं कि भगवान् विष्णु सभी वस्तुओं के उद्गम हैं, जो सृजन विधि से ज्ञात हैं और जो यह समझते हैं कि विष्णु या कृष्ण समस्त जीवों में सर्वाधिक पूज्य विषय हैं, वे वैष्णवों के रूप में विष्णु की पूजा करते हैं। वैदिक मंत्र भी इसकी पुष्टि करते हैं—

ॐ तद् विष्णो: परमं पदम्। जीवन का लक्ष्य विष्णु को समझना है। भागवत में भी अन्यत्र इसी की पुष्टि हुई है। मूर्ख लोग यह न जानते हुए कि विष्णु परम पूज्य विषय हैं इस भौतिक जगत में अनेक पूज्य विषयों की सृष्टि करते हैं, अतएव वे नीचे गिर जाते हैं।

 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥