श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 16: वैकुण्ठ के दो द्वारपालों, जय-विजय को मुनियों द्वारा शाप  »  श्लोक 33
 
 
श्लोक  3.16.33 
तौ तु गीर्वाणऋषभौ दुस्तराद्धरिलोकत: ।
हतश्रियौ ब्रह्मशापादभूतां विगतस्मयौ ॥ ३३ ॥
 
शब्दार्थ
तौ—वे दोनों द्वारपाल; तु—लेकिन; गीर्वाण-ऋषभौ—देवताओं में सर्वश्रेष्ठ; दुस्तरात्—बच सकने में असमर्थ; हरि-लोकत:— हरि के धाम वैकुण्ठ से; हत-श्रियौ—सौन्दर्य तथा कान्ति से हीन; ब्रह्म-शापात्—ब्राह्मण के शाप से; अभूताम्—हो गये; विगत-स्मयौ—खिन्न ।.
 
अनुवाद
 
 किन्तु वे दोनों द्वारपाल, जो कि देवताओं में सर्वश्रेष्ठ थे, जिनका सौन्दर्य तथा कान्ति ब्राह्मणों के शाप से उतर गए थे, खिन्न हो गये और भगवान् के धाम वैकुण्ठ से नीचे गिर गये।
 
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥