भागवत पुराण » स्कन्ध 3: यथास्थिति » अध्याय 16: वैकुण्ठ के दो द्वारपालों, जय-विजय को मुनियों द्वारा शाप » श्लोक 34 |
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| | श्लोक 3.16.34  | तदा विकुण्ठधिषणात्तयोर्निपतमानयो: ।
हाहाकारो महानासीद्विमानाग्र्येषु पुत्रका: ॥ ३४ ॥ | | शब्दार्थ | तदा—तब; विकुण्ठ—परमेश्वर के; धिषणात्—धाम से; तयो:—दोनों; निपतमानयो:—गिर रहे थे; हाहा-कार:—निराशा में गर्जते हुए; महान्—महान्; आसीत्—घटित हुआ; विमान-अछयेषु—सर्वोत्तम विमानों में; पुत्रका:—हे देवताओ ।. | | अनुवाद | | तब, जब जय तथा विजय भगवान् के धाम से गिरे तो अपने भव्य विमानों में बैठे हुए सारे देवताओं ने निराश होकर उत्कट हाहाकार किया। | | |
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