श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 16: वैकुण्ठ के दो द्वारपालों, जय-विजय को मुनियों द्वारा शाप  »  श्लोक 35
 
 
श्लोक  3.16.35 
तावेव ह्यधुना प्राप्तौ पार्षदप्रवरौ हरे: ।
दितेर्जठरनिर्विष्टं काश्यपं तेज उल्बणम् ॥ ३५ ॥
 
शब्दार्थ
तौ—वे दोनों द्वारपाल; एव—निश्चय ही; हि—सम्बोधन किया; अधुना—अब; प्राप्तौ—प्राप्त करके; पार्षद-प्रवरौ—महत्त्वपूर्ण संगी; हरे:—भगवान् के; दिते:—दिति के; जठर—गर्भ; निर्विष्टम्—प्रवेश करते हुए; काश्यपम्—कश्यप मुनि का; तेज:— वीर्य; उल्बणम्—अत्यन्त प्रबल ।.
 
अनुवाद
 
 ब्रह्मा ने आगे कहा : भगवान् के उन दो प्रमुख द्वारपालों ने अब दिति के गर्भ में प्रवेश किया है और कश्यप मुनि के बलशाली वीर्य से वे आवृत हो चुके हैं।
 
तात्पर्य
 यहाँ पर स्पष्ट प्रमाण है कि मूलत: वैकुण्ठलोक से आने वाला जीव किस तरह भौतिक तत्त्वों में बन्दी हो जाता है। जीव पिता के उस वीर्य में शरण पाता है, जो माता के गर्भ में प्रविष्ट किया जाता है और माता के पायसीकृत डिम्ब की सहायता से जीव विशेष प्रकार के शरीर में बढ़ता है। इस सन्दर्भ में यह स्मरण रखना होगा कि कश्यपमुनि का मन तब व्यवस्थित नहीं था जब उन्होंने हिरण्याक्ष तथा हिरण्यकशिपु नामक दोनों पुत्रों का गर्भाधान किया। अतएव उनका जो वीर्य स्खलित हुआ वह एकसाथ अतीव शक्तिशाली एवं क्रोध के गुण से मिश्रित था। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि शिशु का गर्भाधान करते समय मन को धीर तथा भक्तिमय रखना चाहिए। इस कार्य के लिए वैदिक शास्त्रों में गर्भाधान संस्कार की संस्तुति की जाती है। यदि पिता का मन संयत नहीं होता तो स्खलित हुआ वीर्य बहुत अच्छा नहीं होगा। इस तरह पिता तथा माता से उत्पन्न पदार्थ के भीतर लिपटा हुआ जीव हिरण्याक्ष तथा हिरण्यकशिपु जैसा आसुरी होगा। गर्भाधान की परिस्थितियों का सावधानी के साथ अध्ययन करना चाहिए। यह अतिमहान् विज्ञान है।
 
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