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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 16: वैकुण्ठ के दो द्वारपालों, जय-विजय को मुनियों द्वारा शाप  »  श्लोक 37
 
 
श्लोक  3.16.37 
विश्वस्य य: स्थितिलयोद्भवहेतुराद्यो
योगेश्वरैरपि दुरत्यययोगमाय: ।
क्षेमं विधास्यति स नो भगवांस्त्र्यधीश-
स्तत्रास्मदीयविमृशेन कियानिहार्थ: ॥ ३७ ॥
 
शब्दार्थ
विश्वस्य—ब्रह्माण्ड का; य:—जो; स्थिति—पालन-पोषण; लय—विनाश; उद्भव—सृष्टि; हेतु:—कारण; आद्य:—सबसे प्राचीन पुरुष; योग-ईश्वरै:—योग के स्वामियों द्वारा; अपि—भी; दुरत्यय—आसानी से समझा नहीं जा सकता; योग-माय:— उनकी योगमाया शक्ति; क्षेमम्—कल्याण, मंगल; विधास्यति—करेगा; स:—वह; न:—हमारा; भगवान्—भगवान्; त्रि- अधीश:—तीनों गुणों के नियन्ता; तत्र—वहाँ; अस्मदीय—हमारे द्वारा; विमृशेन—विचार-विमर्श; कियान्—क्या; इह—इस विषय में; अर्थ:—लाभ ।.
 
अनुवाद
 
 हे प्रिय पुत्रो, भगवान् प्रकृति के तीनों गुणों के नियन्ता हैं और वे ब्रह्माण्ड की सृष्टि, पालन तथा संहार के लिए उत्तरदायी हैं। उनकी अद्भुत सृजनात्मक शक्ति योगमाया योगेश्वरों तक से आसानी से नहीं समझी जा सकती। सबसे प्राचीन पुरुष भगवान् ही हमें बचा सकते हैं। किन्तु इस विषय पर विचार-विमर्श करने से हम उन की ओर से और क्या कर सकते हैं?
 
तात्पर्य
 जब भगवान् कोई व्यवस्था करते हैं, तो उससे मनुष्य को विचलित नहीं होना चाहिए, भले ही उसकी गणना के अनुसार वह विपरीत क्यों न लगे। उदाहरणार्थ, कभी कभी हम देखते हैं कि कोई शक्तिशाली प्रचारक मार डाला जाता है या कभी कभी वह कष्ट में पड़ जाता है, जिस तरह हरिदास ठाकुर के साथ हुआ। वे एक महान् भक्त थे, जो इस भौतिक जगत में भगवान् की महिमा का प्रचार करके भगवान् की इच्छा को पूरा करने आये थे। किन्तु हरिदास को बाईस बाजारों में मारे पीटे जाकर काजी के हाथों से दण्डित होना पड़ा। इसी तरह जीसस क्राइस्ट को क्रूस पर चढ़ाया गया तथा प्रह्लाद महाराज को अनेकानेक यातनाओं से गुजरना पड़ा। कृष्ण के प्रत्यक्ष मित्र पाण्डवों ने अपना राज्य खो दिया, उनकी पत्नी अपमानित की गई और उन्हें अनेक कठिन यातनाएँ उठानी पड़ीं। इन पराजयों से भक्तों को प्रभावित होते देखकर मनुष्य को विचलित नहीं होना चाहिए। उसे केवल इतना समझ लेना चाहिए कि इन मामलों में अवश्य ही भगवान् की कोई न कोई योजना होगी। भागवत का निष्कर्ष है कि शुद्ध भक्त ऐसी पराजयों से विचलित नहीं होता। वह विपरीत स्थितियों को भी भगवत्कृपा के रूप में स्वीकार करता है। जो व्यक्ति विपरीत अवस्थाओं में भी भगवान् की सेवा करता रहता है, वह आश्वस्त रहता है कि वह भगवद्धाम या वैकुण्ठलोकों को वापस जायेगा। ब्रह्माजी ने देवताओं को आश्वस्त किया कि इस विषय में बात करने से कोई लाभ नहीं कि अंधकार की विचलित करने वाली स्थिति किस तरह घटित हो रही है, क्योंकि वास्तविकता तो यह थी कि इसका आदेश भगवान् द्वारा दिया गया था। ब्रह्मा इसे जानते थे, क्योंकि वे महान् भक्त थे। वे भगवान् की योजना को समझ सकते हैं।
 
इस प्रकार श्रीमद्भागवत के तृतीय स्कन्ध के अन्तर्गत “वैकुण्ठ के दो द्वारपालों जय-विजय को मुनियों द्वारा शाप” नामक सोलहवें अध्याय के भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुए।
 
 
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