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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 16: वैकुण्ठ के दो द्वारपालों, जय-विजय को मुनियों द्वारा शाप  »  श्लोक 8
 
 
श्लोक  3.16.8 
नाहं तथाद्मि यजमानहविर्विताने
श्‍च्योतद्‍घृतप्लुतमदन् हुतभुङ्‍मुखेन ।
यद्ब्राह्मणस्य मुखतश्चरतोऽनुघासं
तुष्टस्य मय्यवहितैर्निजकर्मपाकै: ॥ ८ ॥
 
शब्दार्थ
—नहीं; अहम्—मैं; तथा—दूसरी ओर; अद्मि—खाता हूँ; यजमान—यज्ञकर्ता द्वारा; हवि:—आहुति; विताने—यज्ञ-अग्नि में; श्च्योतत्—डालते हुए; घृत—घी; प्लुतम्—मिश्रित; अदन्—खाते हुए; हुत-भुक्—यज्ञ की अग्नि; मुखेन—मुँह से; यत्—क्योंकि; ब्राह्मणस्य—ब्राह्मण के; मुखत:—मुख से; चरत:—कार्य करते हुए; अनुघासम्—कौर; तुष्टस्य—तुष्ट; मयि—मेरे लिए; अवहितै:—अर्पित किया गया; निज—अपना; कर्म—कार्यकलाप; पाकै:—फलों के द्वारा ।.
 
अनुवाद
 
 यज्ञाग्नि में, जो मेरे ही निजी मुखों में से एक है, यज्ञकर्ताओं के द्वारा डाली गई आहुतियों में मुझे उतना स्वाद नहीं मिलता जितना कि घी से सिक्त उन व्यंजनों से जो उन ब्राह्मणों के मुख में अर्पित किये जाते हैं जिन्होंने अपने कर्मों के फल मुझे अर्पित कर दिये हैं और जो मेरे प्रसाद से सदैव तुष्ट रहते हैं।
 
तात्पर्य
 भगवद्भक्त या वैष्णव भगवान् को अर्पित किये बिना कोई वस्तु ग्रहण नहीं करता। चूँकि वैष्णव अपने सारे कर्मफल भगवान् को अर्पित कर देता है, अत: वह किसी ऐसी खाद्य वस्तु का आस्वादन नहीं करता जो पहले भगवान् को अर्पित न की गई हो। भगवान् भी अपने को अर्पित सारे खाद्य पदार्थों को वैष्णवों के मुखों में देकर आस्वादन करते हैं। इस श्लोक से स्पष्ट है कि भगवान् यज्ञाग्नि तथा ब्राह्मण के मुख के माध्यम से भोजन करते हैं। अत: भगवान् को तुष्ट करने के लिए यज्ञ में अनेक वस्तुएँ—अन्न, घी, आदि—अर्पित की जाती हैं। भगवान् ब्राह्मणों तथा भक्तों से यज्ञ की भेंट स्वीकार करते हैं। अन्यत्र यह कहा गया है कि ब्राह्मणों तथा वैष्णवों को खाने के लिए जो कुछ अर्पित किया जाता है उसे भगवान् भी स्वीकार करते हैं, किन्तु यहाँ पर यह कहा गया है कि वे ब्राह्मणों तथा वैष्णवों के मुखों की भेंटों को और अधिक स्वाद से स्वीकार करते हैं। इसका सर्वोत्तम उदाहरण हरिदास ठाकुर के साथ अद्वैत प्रभु के बर्तावों में पाया जाता है। यद्यपि हरिदास मुसलमान परिवार में जन्मे थे, किन्तु अद्वैत प्रभु ने पवित्र अग्नि उत्सव सम्पन्न करने के बाद प्रसाद की पहली थाली उन्हें ही भेंट की थी। हरिदास ठाकुर ने उन्हें बतलाया कि मैं मुसलमान परिवार में पैदा हुआ हूँ तो आप पहली थाली किसी उच्च ब्राह्मण को भेंट न करके एक मुसलमान को क्यों प्रदान कर रहे हैं? हरिदास ने अपनी विनयशीलतावश ही अपने को मुसलमान कहकर भर्त्सना की, किन्तु अनुभवी भक्त होने के कारण अद्वैत प्रभु ने उन्हें असली ब्राह्मण माना। अद्वैत प्रभु ने कहा कि हरिदास ठाकुर को पहली थाली भेंट करके वे एक लाख ब्राह्मणों को खिलाने का फल प्राप्त कर रहे हैं। निष्कर्ष यह निकला कि यदि कोई एक ब्राह्मण या वैष्णव को खिला सकता है, तो यह लाखों यज्ञ करने से अच्छा है। इसीलिए इस युग में संस्तुति की गई है कि हरेर्नाम अर्थात् भगवान् के पवित्र नाम का कीर्तन करना तथा वैष्णवों को प्रसन्न करना ही मनुष्य को आध्यात्मिक जीवन तक ऊपर उठाने के एकमात्र साधन हैं।
 
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