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श्लोक 3.17.11  |
खराश्च कर्कशै: क्षत्त: खुरैर्घ्नन्तो धरातलम् ।
खार्काररभसा मत्ता: पर्यधावन् वरूथश: ॥ ११ ॥ |
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शब्दार्थ |
खरा:—गधे; च—तथा; कर्कशै:—कटु; क्षत्त:—हे विदुर; खुरै:—अपने खुरों से; घ्नन्त:—मारते हुए; धरा-तलम्— पृथ्वी पर; खा:-कार—रेंकते हुए; रभसा:—बुरी तरह से संलग्न; मत्ता:—प्रमत्त, पागल; पर्यधावन्—इधर उधर दौडऩे लगे; वरूथश:—झुंडों में ।. |
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अनुवाद |
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हे विदुर, झुंड के झुंड गधे अपने कठोर खुरों से पृथ्वी पर प्रहार करते हुए तथा जोर जोर से रेंकते हुए इधर उधर दौडऩे लगे। |
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तात्पर्य |
गधों की जाति भी अपने को अत्यन्त आदरणीय समझती है, अत: जब वे इधर उधर झुंडों में दौडऩे लगते हैं, तो मानव समाज के लिए यह अपशकुन माना जाता है। |
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