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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 17: हिरण्याक्ष की दिग्विजय  »  श्लोक 17
 
 
श्लोक  3.17.17 
दिविस्पृशौ हेमकिरीटकोटिभि-
र्निरुद्धकाष्ठौ स्फुरदङ्गदाभुजौ ।
गां कम्पयन्तौ चरणै: पदे पदे
कट्या सुकाञ्‍च्यार्कमतीत्य तस्थतु: ॥ १७ ॥
 
शब्दार्थ
दिवि-स्पृशौ—आकाश को छूने वाला; हेम—स्वर्णिम; किरीट—उनके मुकुटों का; कोटिभि:—शिखरों से; निरुद्ध—अवरुद्ध; काष्ठौ—दिशाएँ; स्फुरत्—चमकीले; अङ्गदा—बाजूबंद; भुजौ—जिनकी बाँहों में; गाम्—पृथ्वी को; कम्पयन्तौ—हिलाते हुए; चरणै:—अपने पाँवों से; पदे पदे—पत्येक पद पर; कट्या—अपनी कमर से; सु- काञ्च्या—आभूषित करधनियों से; अर्कम्—सूर्य; अतीत्य—पार करके; तस्थतु:—वे खड़े हुए ।.
 
अनुवाद
 
 उनके शरीर इतने ऊँचे हो गये कि उनके स्वर्ण-मुकुटों के शिखर मानो आकाश को चूम रहे हों। उनके कारण सभी दिशाएँ अवरुद्ध हो जाती थीं और जब वे चलते तो उनके प्रत्येक पग पर पृथ्वी हिलती थी। उनके बाहुओं में चमकीले बाजूबन्द सुशोभित थे। उनकी कमर में परम सुन्दर करधनियाँ बँधी थीं और जब वे खड़े होते तो ऐसा लगता मानो उनकी कमर से सूर्य ढक गया हो।
 
तात्पर्य
 आसुरी सभ्यता में लोग अपने शरीर को इस प्रकार गठित करते हैं कि जब वे सडक़ पर चलें तो धरती काँपे और जब वे खड़े हों तो सूर्य ढक जाय और चारों दिशाएँ न दिखें। यदि किसी देश की कोई जाति बलिष्ठ शरीर वाली प्रकट हो जाती है, तो वह देश भौतिक दृष्टि विश्व के उन्नत राष्ट्रों में गिना जाता है।
 
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