ज्येष्ठ पुत्र हिरण्यकशिपु को तीनों लोकों में किसी से भी अपनी मृत्यु का भय न था, क्योंकि उसे ब्रह्मा से वरदान प्राप्त हुआ था। इस वरदान के कारण यह अत्यन्त दंभी तथा अभिमानी हो गया था और तीनों लोकों को अपने वश में करने में समर्थ था।
तात्पर्य
अगले अध्यायों में पता चलेगा कि ब्रह्मा को प्रसन्न करने के लिए हिरण्यकशिपु ने कठिन तपस्या की थी और तब उसे अमर रहने का वरदान प्राप्त हुआ था। वस्तुत: ब्रह्माजी किसी को अमर होने का वर नहीं दे सकते, किन्तु अप्रत्यक्षत: हिरण्यकशिपु ने यह वरदान प्राप्त कर लिया था कि इस भौतिक संसार का कोई भी व्यक्ति उसको मार न सके। दूसरे शब्दों में, चूँकि वह मूलत: वैकुण्ठ धाम से आया था, अत: इस लोक का कोई भी व्यक्ति उसे मार नहीं सकता था। इसीलिए उसे मारने के लिए स्वयं भगवान् को प्रकट होना पड़ा। भले ही कोई अपने ज्ञान के भौतिक विकास पर इतरा ले, किन्तु वह जन्म, मृत्यु, जरा तथा व्याधि इन चार भौतिक नियमों के प्रति निश्चेष्ट नहीं रह सकता। यह भगवान् की योजना थी कि वे जनता को बता दें कि हिरण्यकशिपु जैसा बलशाली व्यक्ति भी निश्चित अवधि से अधिक जीवित नहीं रह सका था। भले ही कोई हिरण्यकशिपु के समान बलशाली तथा अभिमानी और तीनों लोकों को अपने वश में करने वाला क्यों न हो ले, किन्तु उसे चिरकाल तक जीवित रहने या लूट का माल रखने की छूट नहीं है। न जाने कितने सम्राटों ने शासन किया होगा, किन्तु वे सभी अब विस्मृति के गर्भ में विलीन हो गये। यही इस संसार का इतिहास है।
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