तत्रोपलभ्यासुरलोकपालकं
यादोगणानामृषभं प्रचेतसम् ।
स्मयन् प्रलब्धुं प्रणिपत्य नीचव-
ज्जगाद मे देह्यधिराज संयुगम ॥ २७ ॥
शब्दार्थ
तत्र—वहाँ; उपलभ्य—पहुँचकर; असुर-लोक—असुरों के रहने के भूभाग का; पालकम्—रक्षक; याद:- गणानाम्—जलचरों का; ऋषभम्—राजा; प्रचेतसम्—वरुण; स्मयन्—हँसते हुए; प्रलब्धुम्—हँसी उड़ाते; प्रणिपत्य—झुक करके; नीच-वत्—नीच मनुष्य की तरह; जगाद—कहा; मे—मुझको; देहि—दो; अधिराज—हे महान् राजा; संयुगम्—युद्ध ।.
अनुवाद
विभावरी वरुण की पुरी है और वरुण समस्त जलचरों का स्वामी तथा ब्रह्माण्ड के अध: क्षेत्रों का रक्षक है, जहाँ सामान्य रूप से असुर वास करते हैं। वहाँ पहुँचकर हिरण्याक्ष नीच पुरुष के समान वरुण के चरणों पर गिर पड़ा और उसकी हँसी उड़ाने के लिए उसने मुस्कुराते हुए कहा, “हे परमेश्वर, मुझे युद्ध की भिक्षा दीजिये।”
तात्पर्य
सुरी पुरुष सदैव दूसरों को ललकारता है और उनकी सम्पत्ति पर बलपूर्वक अधिकार जमाने का प्रयत्न करता है। यहाँ पर ये लक्षण हिरण्याक्ष में पूर्णरूपेण देखे जाते हैं जिसने ऐसे पुरुष से युद्ध की भिक्षा माँगी जो लडऩा नहीं चाहता था।
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