श्रीमद् भागवतम
 
हिंदी में पढ़े और सुनें
भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 17: हिरण्याक्ष की दिग्विजय  »  श्लोक 29
 
 
श्लोक  3.17.29 
स एवमुत्सिक्तमदेन विद्विषा
द‍ृढं प्रलब्धो भगवानपां पति: ।
रोषं समुत्थं शमयन् स्वया धिया
व्यवोचदङ्गोपशमं गता वयम् ॥ २९ ॥
 
शब्दार्थ
स:—वरुण; एवम्—इस प्रकार; उत्सिक्त—चूर; मदेन—मद से; विद्विषा—शत्रु के द्वारा; दृढम्—अत्यधिक; प्रलब्ध:—हँसी उड़ाए जाने पर; भगवान्—पूज्य; अपाम्—जल का; पति:—स्वामी; रोषम्—क्रोध; समुत्थम्— उठकर; शमयन्—शान्त करते हुए; स्वया धिया—अपने तर्क से; व्यवोचत्—उसने उत्तर दिया; अङ्ग—हे प्रिय; उपशमम्—युद्ध से विरत; गता:—गये हुए; वयम्—हम ।.
 
अनुवाद
 
 अत्यन्त दंभी शत्रु के द्वारा इस प्रकार उपहास किये जाने पर जल के पूज्य स्वामी को क्रोध तो आया, किन्तु तर्क के बल पर वे उस क्रोध को पी गये और उन्होंने इस प्रकार उत्तर दिया—हे प्रिय, युद्ध के लिए अत्यधिक बूढ़ा होने के कारण अब मैं युद्ध से दूर रहता हूँ।
 
तात्पर्य
 ैसाकि हम देखते हैं, युद्धप्रिय भौतिकतावादी लोग सदैव अकारण ही युद्ध थोप देते हैं।
 
शेयर करें
       
 
  All glories to Srila Prabhupada. All glories to वैष्णव भक्त-वृंद
  Disclaimer: copyrights reserved to BBT India and BBT Intl.

 
About Us | Terms & Conditions
Privacy Policy | Refund Policy
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥