श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 17: हिरण्याक्ष की दिग्विजय  »  श्लोक 31
 
 
श्लोक  3.17.31 
तं वीरमारादभिपद्य विस्मय:
शयिष्यसे वीरशये श्वभिर्वृत: ।
यस्त्वद्विधानामसतां प्रशान्तये
रूपाणि धत्ते सदनुग्रहेच्छया ॥ ३१ ॥
 
शब्दार्थ
तम्—उसको; वीरम्—परम वीर; आरात्—तुरन्त; अभिपद्य—पहुँचने पर; विस्मय:—गर्व से रहित; शयिष्यसे—तुम सो जाओगे; वीरशये—युद्ध भूमि में; श्वभि:—कुत्तों के द्वारा; वृत:—घिरे हुए; य:—जो; त्वत्-विधानाम्—तुम समान; असताम्—दुष्ट पुरुषों का; प्रशान्तये—मार भगाने; रूपाणि—विविध रूप; धत्ते—धारण करता है; सत्— सत्पुरुषों के लिए; अनुग्रह—अपनी कृपा दिखाने के लिए; इच्छया—इच्छा से ।.
 
अनुवाद
 
 वरुण ने आगे कहा—उनके पास पहुँचते ही तुम्हारा सारा अभिमान दूर हो जाएगा और तुम युद्धभूमि में कुत्तों से घिरकर चिर निद्रा में सो जाओगे। तुम जैसे दुष्टों को मार भगाने तथा सत्पुरुषों पर अपनी कृपा प्रदर्शित करने के लिए ही वे वराह जैसे विविध रूपों में अवतरित होते रहते हैं।
 
तात्पर्य
 असुरों को यह पता नहीं रहता कि उनके शरीर पंचतत्त्वों से निर्मित हैं और मरने पर इन्हें कुत्ते तथा गीध आनन्दपूर्वक खा जाएँगे। वरुण ने हिरण्याक्ष को सलाह दी कि वह विष्णु के वराह अवतार के पास जाए जिससे उसकी युद्ध-कामना पूरी हो और उसका बलिष्ठ शरीर छिन्न-भिन्न हो जाय।
 
इस प्रकार श्रीमद्भागवत के तीसरे स्कन्ध के अन्तर्गत “हिरण्याक्ष की दिग्विजय” नामक सत्रहवें अध्याय के भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुए।
 
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥