श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 17: हिरण्याक्ष की दिग्विजय  »  श्लोक 4
 
 
श्लोक  3.17.4 
सहाचला भुवश्चेलुर्दिश: सर्वा: प्रजज्वलु: ।
सोल्काश्चाशनय: पेतु: केतवश्चार्तिहेतव: ॥ ४ ॥
 
शब्दार्थ
सह—के साथ साथ; अचला:—पर्वत; भुव:—पृथ्वी के; चेलु:—हिल उठी; दिश:—दिशाएँ; सर्वा:—समस्त; प्रजज्वलु:—अग्नि के समान धधक उठीं; स—साथ; उल्का:—उल्कापिंड; च—तथा; अशनय:—वज्र; पेतु:—गिर पड़े; केतव:—पुच्छल तारे; च—तथा; आर्ति-हेतव:—समस्त अशुभों का कारण ।.
 
अनुवाद
 
 पृथ्वी पर पर्वत काँपने लगे और ऐसा प्रतीत होने लगा मानो सर्वत्र अग्नि ही अग्नि हो। उल्काओं, पुच्छल तारों तथा वज्रों के साथ-साथ शनि जैसे अनेक अशुभ ग्रह दिखाई देने लगे।
 
तात्पर्य
 जब किसी लोक में प्राकृतिक उत्पात होने लगें तो यह समझना चाहिए कि किसी असुर ने जन्म लिया है। वर्तमान युग में आसुरी लोगों की संख्या बढ़ रही है, फलत: प्राकृतिक उत्पातों में भी वृद्धि हो रही है। इसमें कोई सन्देह नहीं है, जैसाकि भागवत के कथन से हम स्पष्ट रूप से समझ सकते हैं।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥