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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 17: हिरण्याक्ष की दिग्विजय  »  श्लोक 6
 
 
श्लोक  3.17.6 
उद्धसत्तडिदम्भोदघटया नष्टभागणे ।
व्योम्नि प्रविष्टतमसा न स्म व्याद‍ृश्यते पदम् ॥ ६ ॥
 
शब्दार्थ
उद्धसत्—जोर जोर से हँसकर; तडित्—बिजली; अम्भोद—बादलों के; घटया—समूह; नष्ट—विनष्ट; भा-गणे— नक्षत्र; व्योम्नि—आकाश में; प्रविष्ट—घिरा हुआ; तमसा—अंधकार से; —नहीं; स्म व्यादृश्यते—दिखता था; पदम्—कोई स्थान ।.
 
अनुवाद
 
 आकाश के नक्षत्रों को मेघों की घटाओं ने घेर लिया और उनमें कभी कभी बिजली चमक जाती तो लगता मानो जोर से हँस रही हो। चारों ओर अन्धकार का राज्य था और कुछ भी दिखाई नहीं पड़ रहा था।
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥