श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 17: हिरण्याक्ष की दिग्विजय  »  श्लोक 8
 
 
श्लोक  3.17.8 
मुहु: परिधयोऽभूवन् सराह्वो: शशिसूर्ययो: ।
निर्घाता रथनिर्ह्रादा विवरेभ्य: प्रजज्ञिरे ॥ ८ ॥
 
शब्दार्थ
मुहु:—पुन: पुन:; परिधय:—कुहरे से युक्त मण्डल; अभूवन्—प्रकट हुआ; स-राह्वो:—ग्रहणों के समय; शशि— चन्द्रमा का; सूर्ययो:—सूर्य का; निर्घाता:—गर्जन; रथ-निर्ह्रादा:—घर्घर करते रथों का सा शब्द; विवरेभ्य:—पर्वत की गुफाओं से; प्रजज्ञिरे—उत्पन्न हो रहा था ।.
 
अनुवाद
 
 सूर्य तथा चन्द्रमा के चारों ओर ग्रहण लगने के समय अमंगल-सूचक मण्डल बार बार दिखाई पडऩे लगा। बिना बादलों के ही गरजने की ध्वनि और पर्वत की गुफाओं से रथों जैसी घरघराहट सुनाई पडऩे लगी।
 
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥